राहुल गांधी को यह तय करने की सख्त जरूरत है कि गांधी जी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार बताने संबंधी अपने जिस बयान के लिए वह मुकदमे का सामना कर रहे हैं उसके संदर्भ में खुद उनका नजरिया क्या है? अगर वह अपने बयान पर कायम हैं तो फिर उनकी ओर से अदालत में पेश उनके वकील कपिल सिब्बल ने यह क्यों कहा कि कांग्रेस उपाध्यक्ष ने यह कहा ही नहीं कि गांधी जी की हत्या आरएसएस ने कराई थी? यह कहकर अदालतों का समय तो खराब किया जा सकता है कि राहुल के कहने का यह नहीं वह मतलब था, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह मुकदमे का सामना इसीलिए कर रहे हैं, क्योंकि 2014 में उन्होंने आरएसएस को गांधी जी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया था। इसी कथन को आधार बनाकर आरएसएस के एक कार्यकर्ता ने उनके खिलाफ भिवंडी की अदालत में मानहानि का मामला दायर किया था। अगर राहुल ने आरएसएस के बजाय उसके कुछ लोगों का जिक्र किया होता तो शायद यह मुकदमा आगे बढ़ता ही नहीं। भिवंडी में दायर मुकदमा केवल आगे ही नहीं बढ़ा, बल्कि जब राहुल राहत पाने के लिए बंबई उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय गए तो वहां से उन्हें नसीहत और हिदायत सुनने को ही मिली। यदि राहुल को यह लगता है कि इस मामले के खिंचने से उन्हें राजनीतिक तौर पर लाभ मिलेगा तो फिर उन्हें अपने रवैये पर कायम रहना चाहिए। आखिर इसका क्या मतलब कि अदालतों में उनके वकील कुछ कहें और बाद में राहुल कुछ और? राहुल को यह भी समझने की जरूरत है कि व्यक्ति विशेष की की गलतियों के लिए उससे संबंधित संगठन पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। अगर वह इस तर्क को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं तो फिर कांग्रेस को भी अपने राजनीतिक विरोधियों की ओर से ऐसे ही दोषारोपण के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर राहुल को आरएसएस की विचारधारा से शिकायत है तो उन्हें उसका विरोध करने का अधिकार है, लेकिन यह काम तथ्यों को तोड़-मरोड़कर नहीं किया जा सकता।

यह निराशाजनक है कि राजनीति की बुनियाद ठीक करने और राजनीतिक तौर-तरीकों में व्यापक बदलाव करने का संकल्प लेकर सक्रिय हुए राहुल गांधी कांग्रेस उपाध्यक्ष के तौर पर कलह, टकराव और दुर्भाव की राजनीति को गति दे रहे हैं। कांग्रेस और देश की राजनीति को कोई सही दिशा स्वस्थ राजनीतिक तौर-तरीकों से मिलेगी, न कि वैसे तौर-तरीकों से जिनका परिचय राहुल दे रहे हैं। अच्छा हो कि उनके सलाहकार उन्हें बताएं कि कलह और टकराव की राजनीति ज्यादा दूरी तय नहीं कर सकती। यह इसलिए और भी आवश्यक है, क्योंकि अब कांग्रेस की बागडोर एक तरह से राहुल के ही हाथ है। यदि वह विभिन्न मसलों पर आगा-पीछा करते रहने वाले नेता के तौर पर दिखेंगे तो पार्टी और ज्यादा भ्रमित होगी। सच तो यह है कि वह भ्रमित दिख भी रही है। कोई नहीं जानता कि कश्मीर और बलूचिस्तान के मसले पर कांग्रेस की वास्तविक सोच क्या है?

क्या यह हास्यास्पद नहीं कि श्रीनगर में कांग्रेसी नेता गृहमंत्री से मिलने से इंकार करते हैं और दिल्ली में उनसे सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग करते हैं? आखिर ज्वलंत मसलों पर ऐसे उलट-पुलट रुख-रवैये का प्रदर्शन करने वाली कांग्र्रेस देश तो दूर रहा, अपने लोगों को भी कोई सही संदेश कैसे दे सकती है?

[ मुख्य संपादकीय ]