राजस्थान के आगामी विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक जनसभा को संबोधित करने जयपुर पहुंचे राहुल गांधी ने जिस तरह एक बार फिर राफेल विमान सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया उससे यह और साफ हो गया कि वह इस मसले को चुनावों में भुनाने का इरादा रखते हैैं। वह राफेल विमान खरीद को घोटाला बताने के साथ-साथ इस पर भी सवाल उठा रहे हैैं कि इस सौदे के तहत अनिल अंबानी की कंपनी को अनुबंध क्यों मिल गया? हालांकि इस कंपनी की ओर से राहुल के आरोपों का जवाब दिया जा चुका है, लेकिन लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष उसे कोई महत्व देने के लिए तैयार नहीं।

वह अनिल अंबानी को प्रधानमंत्री का मित्र करार देकर यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैैं कि उनकी कंपनी को अनुचित लाभ पहुंचाया गया। वैसे तो सरकार की ओर से राहुल गांधी और अन्य की ओर से उठाए गए सवालों का जवाब दिया जा चुका है, लेकिन जब इस सौदे को राजनीतिक मसला बनाने की कोशिश हो रही हो तब केवल यह कहने से काम चलने वाला नहीं है कि जो भी आरोप लगाए जा रहे हैैं वे निराधार हैैं। इस तरह की बातों से भी बात बनना मुश्किल है कि रक्षामंत्री के बयान पर भरोसा किया जाना चाहिए, न कि उन पर जिन्हें कोई काम नहीं मिला।

पार्टी और सरकार के रणनीतिकारों को यह भी समझना होगा कि एक तो आम जनता रक्षा सौदों की बारीकियों से परिचित नहीं होती और दूसरे, बार-बार दोहराया जाना वाला झूठ भी कुछ न कुछ असर डालता है। एक तथ्य यह भी है कि अपने देश में भ्रष्टाचार रह-रहकर चुनावी मुद्दा बनता रहा है।

बेहतर होगा कि सरकार ऐसे सवालों के विस्तृत जवाब दे कि राफेल विमान खरीदने से संबंधित मूल सौदे को किस कारण बदला गया और 108 के बजाय 36 विमानों का सौदा क्यों करना पड़ा? एक सवाल राफेल को देश में निर्मित न करने को लेकर भी है। सबसे बड़ा सवाल विमान की कीमत का है। राहुल गांधी की मानें तो मनमोहन सरकार के समय इस विमान की कीमत 540 करोड़ रुपये के करीब थी, लेकिन मोदी सरकार लगभग 1600 करोड़ रुपये में एक विमान खरीद रही है।

सरकार की दलील है कि इस सौदे के गोपनीयता संबंधी प्रावधान के चलते और साथ ही विमान की विशेषताओं को गुप्त बनाए रखने के लिए उसकी कीमत सार्वजनिक नहीं की जा सकती। इस दलील को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन सरकार को ऐसा कोई तरीका भी निकालना होगा जिससे राफेल सौदे को बोफोर्स तोप सौदे सरीखा मसला बनाने की कोशिश पर लगाम लगे। नि:संदेह राफेल सौदे पर कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रपट तमाम सवालों के जवाब दे सकती है, लेकिन उसकी रपट आने में समय लगेगा।

मौजूदा राजनीतिक माहौल में इस पर भी हैरत नहीं कि विपक्ष यह कहते हुए उसकी रपट खारिज कर दे कि सरकार ने मनमाफिक रपट हासिल कर ली। ध्यान रहे 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन में गड़बड़ी के आकलन पर कांग्रेस ने सत्ता में होते हुए भी कैग को निशाने पर लिया था।