एक ऐसे समय जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायाधीशों की नियुक्ति वाली कोलेजियम व्यवस्था को उचित और पारदर्शी ठहराने में लगे हुए हैं, तब किसी को ऐसा कुछ कहने के लिए आगे आना ही चाहिए कि यह आकलन सही नहीं। यह अच्छा है कि पहले कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कोलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए, फिर उपराष्ट्रपति जयदीप धनखड़ ने भी। ऐसे स्वर उभरने इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि जो सुप्रीम कोर्ट एक वक्त कोलेजियम व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता रेखांकित कर रहा था, वह अब उसे पूरी तरह सही बताने में लगा हुआ है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह एक तथ्य है कि कोलेजियम व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्य-मान्यताओं के अनुकूल नहीं।

विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते, लेकिन भारत में तबसे ऐसा ही हो रहा है, जबसे सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के जरिये जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। इसे कोलेजियम व्यवस्था का नाम दिया गया। यह व्यवस्था इसलिए सही नहीं, क्योंकि इसके तहत न्यायाधीशों की जो नियुक्तियां होती हैं, उसमें कार्यपालिका की कहीं कोई भूमिका नहीं। उसे बस उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की उस सूची पर मुहर लगानी होती है, जो सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम की ओर से उसे भेजी जाती है।

जिस प्रक्रिया में कार्यपालिका की भूमिका पोस्ट मास्टर सरीखी हो, उसे न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। इसलिए और नहीं, क्योंकि किसी को नहीं पता चलता कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति किस आधार पर की गई? ऐसी प्रक्रिया को पारदर्शी बताना पारदर्शिता का उपहास है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह प्रश्न खड़ाकर सही किया कि आखिर सुप्रीम कोर्ट की ओर से न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी संविधान संशोधन कानून को खारिज करने के बाद उस पर संसद में कोई बहस क्यों नहीं हुई? न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक आयोग का गठन करने वाले इस संविधान संशोधन कानून का निर्माण व्यापक विचार-विमर्श के बाद करीब-करीब सर्वसम्मति से किया गया था। यह आश्चर्यजनक है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसमें संशोधन-परिवर्तन की आवश्यकता जताने के बजाय उसे सिर से खारिज कर दिया। इससे देश को यही संदेश गया कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति अपने हिसाब से ही करते रहना चाहता है।

इसकी पुष्टि इससे भी हुई कि कोलेजियम व्यवस्था की विसंगतियों को दूर करने की कोई ठोस पहल भी नहीं हुई। निश्चित रूप से इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कोलेजियम व्यवस्था को लेकर असहमति जताई जा रही है, क्योंकि आवश्यकता इस बात की है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव हो। यह बदलाव इसलिए होना चाहिए, क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नाम पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उसका पूर्ण एकाधिकार ठीक नहीं।