योजना तभी कारगर व सफल होगी, जब उसका लाभ संबंधित पक्षों को समय रहते मिले। ऐसा नहीं होता तो योजना की विफलता तय है और उनका कार्यान्वयन करने वाली संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है। प्रदेश व केंद्र सरकार द्वारा आम जनता की सुविधा के लिए कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं। निश्चित तौर पर इन योजनाओं से उन वगोर्ं को लाभ पहुंच रहा है, जिनके लिए इन्हें शुरू किया गया था। लेकिन राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) के तहत प्रदेश के गरीबों को लाभ न मिलने पर केंद्र द्वारा प्रदेश सरकार से जवाब मांगना चिंताजनक है। चिंता इसलिए भी अधिक है कि करोड़ों रुपये की ग्रांट जारी होने के बाद भी गरीबी दूर करने के लिए संचालित योजना में नियुक्तियां नहीं हो पाई हैं। जाहिर तौर पर विशेषज्ञों की नियुक्तियां न किए जाने से योजना पर सवाल खड़े हो गए हैं। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने हिमाचल सहित नौ राज्यों से जवाब मांगा है। योजना के संचालन के लिए ब्लॉक से लेकर राज्यस्तर विशेषज्ञ नहीं रखे गए। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लताड़ लगाते हुए मार्च तक इस लक्ष्य को पूरा करने का आदेश दिया है। 

केंद्र ने इस योजना के तहत हिमाचल सरकार को स्वयं सहायता समूहों के प्रोत्साहन के लिए 34 करोड़ रुपये जारी किए थे, इस राशि में से सहायता समूहों को 27 करोड़ रुपये का आवंटन भी कर दिया गया है। वर्तमान में प्रदेश में 16 हजार स्वयं सहायता समूह हैं जिन्हें इस योजना के तहत सस्ती दर पर अनुदान राशि प्रदान की जाती है। इसके तहत तीन से सात फीसद तक ब्याज पर अनुदान प्रदान किया जाता है। विशेषज्ञों की नियुक्ति का मकसद ऐसे स्वयं सहायता समूहों को सहायता उपलब्ध करवाना है जो इस मिशन को बेहतर तरीके से संचालन में मदद प्रदान कर सकें। लेकिन लालफीताशाही की अनदेखी व सरकार की अनिच्छा के कारण ऐसी नियुक्तियां नहीं पाईं। किसी भी योजना की सार्थकता तभी है जब इसे पात्र लोगों तक पहुंचाए जाए। इसके सरकार के साथ-साथ संबंधित पक्षों की जिम्मेदारी है कि वे ईमानदारी से कार्य करें, ताकि केंद्र के धन का सदुपयोग हो सके। विकास में पिछड़े हिमाचल को केंद्रीय योजनाओं का सहारा अधिक है, इसलिए प्रदेश सरकार को विचार करना चाहिए कि इस तरह किसी भी केंद्रीय योजना का हश्र न हो।