शिक्षा विभाग ने राज्य के सभी स्कूलों में नौवीं और दसवीं कक्षा में पंजाबी भाषा को छोड़ डोगरी, कश्मीरी और बौद्धी भाषा को वर्ष 2018 से नए शिक्षा सत्र में अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाने के आदेश के बाद राजनीति गरमाना की आशंका है। विडंबना यह है कि राज्य में करीब पांच लाख पंजाबी बोलने वाले लोग हैं। ऐसे में पंजाबी भाषा को नजरअंदाज करना उचित नहीं है। भाषा से भेदभाव करने से लोगों में रोष पनपना स्वभाविक है। स्कूलों में पंजाबी भाषा को शामिल न करने के विरोध में जम्मू सिख समुदाय के अलावा विभिन्न राजनीतिक संगठन भी शामिल हो गए हैं।

ऐसा कोई दिन खाली नहीं जा रहा जब लोग सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन न कर रहे हों। जम्मू-कश्मीर में वर्ष 1981 से पहले पंजाबी भाषा को स्कूलों में विषय के तौर पर पढ़ाया जाता था लेकिन बाद में इसे हटा दिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद ने भी स्कूलों में पंजाबी पढ़ाने की मांग को शीघ्र पूरा करने का आश्वासन दिया था, लेकिन सरकार ने नजरंदाज कर अपने खिलाफ एक मोर्चा खुलवा लिया। कुछ संगठनों ने सरकार को चेतावनी भी दे डाली है कि अगर पंजाबी भाषा को शामिल नहीं किया जाता तो वे जेल भरो आंदोलन शुरू कर देंगे।

सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू से लगते कई क्षेत्र पंजाब से जुड़े हुए हैं और सीमावर्ती क्षेत्रों में पंजाबी का उच्चारण अधिक होता है क्योंकि आजादी से पहले आरएसपुरा बेल्ट के साथ लगने वाले सियालकोट जो अब पाकिस्तान में है, देश के बंटवारे से पहले गुरदासपुर जिले का हिस्सा था। बेशक सरहदें बंट गईं लेकिन भाषाएं नहीं बंट पाईं। अभी भी जम्मू के सिख बहुत इलाकों में पंजाबी ज्यादा बोली जाती है जबकि जम्मू विश्वविद्यालय और कॉलेजों में भी इसे विषय के तौर पर पढ़ाया जा रहा है। अगर स्कूलों में इसे नहीं पढ़ाया जाएगा तो छात्र उच्च शिक्षा में इसे कैसे चुन पाएंगे। सरकार का यह दायित्व बनता है कि पंजाबी भाषा को भी विषय के तौर पर स्कूलों में शामिल करे जिससे कि राज्य में पंजाबी न पिछड़े। भाषा की कोई जाति नहीं होती है बल्कि यह लोगों को जोड़ती है।

[ स्थानीय संपादकीय : जम्मू-कश्मीर ]