कोल्हान से आई यह खबर हमें चौकन्ना कर रही कि आठवीं से 12वीं सदी के अवशेषों की रक्षा करनी है तो उन्हें संरक्षा देनी होगी। यह तो एक बानगी भर है। पूरे झारखंड में ऐसी धरोहरों की भरमार है जिनके रखरखाव को व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। राज्य के हर इलाके इस तरह की समृद्ध धरोहरों से भरे पड़े हैं। कहते हैं कि मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव इसी इलाके से हुआ। स्वाभाविक रूप से पूरे प्रदेश में बिखरे ऐतिहासिक अवशेषों, सांस्कृतिक साक्ष्यों और स्थापत्य कला की दृष्टि से उल्लेखनीय कृतियों से इसे देखा-समझा जा सकता है। अच्छी बात यह है कि समय के थपेड़ों को ङोलते हुए भी कई धरोहरें बची हुई हैं। कल्पना की जा सकती है कि हमारे पूर्वज ज्ञान व कौशल की कसौटी पर कितने आगे रहे होंगे। तो फिर हम उनकी विरासत को बचाने के लिए गंभीर क्यों नहीं होते? इसके लिए हमें साल में एक खास दिवस का इंतजार क्यों रहता है? ये भवन सिर्फ देखने में ही सुंदर नहीं होते बल्कि हमें अपनी संस्कृति से भी जोड़ते हैं। हमें अपनी धरोहरों के संरक्षण के लिए ठोस पहल करनी होगी। ऐसा होने पर नए झारखंड की समृद्ध विरासत से दुनिया परिचित होगी।

पर्यटन विकास की अकूत संभावनाओं को हकीकत बनने में मदद मिलेगी। आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी। छवि सुधरने के कई दूसरे फायदे भी होंगे। सबसे पहले नई पीढ़ी को इनके महत्व को बताना जरूरी है। स्कूली पाठ्यक्रमों में इनपर प्रकाश डाला जाना चाहिए। इनके संरक्षण-संवर्धन से युवा वर्ग को जोड़ना होगा। आम लोगों की भागीदारी बढ़ानी होगी। कारपोरेट-व्यावसायिक जगत को भी इससे जोड़ना होगा। ऐतिहासिक धरोहर को गोद देने की योजना जिला स्तर पर आरंभ की जा सकती है। एक-एक धरोहर को किसी एक कारपोरेट घराने या कारोबारी परिवार को सौंपा जा सकता है। यहां ध्यान रखने की आवश्यकता है कि गोद लेने के बाद उस धरोहर के स्वरूप से किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए। एक बात और गौर करनेवाली है, तेजी से पनप रहे भूमि माफिया की भी नजरें ऐसी धरोहरों पर पड़ चुकी हैं। उनसे भी इन्हें बचाना होगा। उस इमारत या इलाके के ढांचागत विकास पर भी ध्यान देना होगा। तभी झारखंड अपनी समृद्ध विरासत को सहेज व संवार सकेगा और उससे उसकी नई छवि का प्रकटीकरण भी होगा और विश्व की नजरें इस प्रदेश पर होंगी।

[ स्थानीय संपादकीय: झारखंड ]