कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या पर चौतरफा रोष और आक्रोश स्वाभाविक ही है। इस तरह की हत्याएं सभ्य समाज के समक्ष उपस्थित गंभीर खतरों को ही रेखांकित करती हैैं। गौरी लंकेश की हत्या एमएम कलबुर्गी, गोविंद पनसारे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्याओं की याद दिलाने वाली है। ये सभी लेखक-बुद्धिजीवी के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी जाने जाते थे। ऐसे लोगों की हत्या देश की बदनामी का कारण बनती है। विडंबना यह है कि इनमें से किसी की भी हत्या के कारणों की तह तक नहीं पहुंचा जा सका है। कर्नाटक सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि गौरी लंकेश की हत्या की जांच में किसी तरह की हीलाहवाली न होने पाए। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कर्नाटक सरकार ने विशेष जांच दल के गठन की घोषणा कर दी है, क्योंकि कर्नाटक सीआईडी दो साल बाद भी एमएम कलबुर्गी की हत्या के कारणों का पता नहीं लगा सकी है। वैसे तो कानून एवं व्यवस्था के मामले में कर्नाटक सरकार के लचर रवैये को देखते हुए गौरी लंकेश की हत्या की जांच सीबीआइ को सौंपने की मांग उचित ही नजर आती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह एजेंसी नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के मामले में किसी ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सकी है। इसी तरह महाराष्ट्र पुलिस का विशेष जांच दल गोविंद पनसारे के हत्यारों तक पहुंचने में नाकाम है। ऐसा क्यों है, इसकी तह तक जाने की जरूरत है। यदि सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोपी इसी तरह बचे रहे तो इससे कानून का शासन गंभीर सवालों से ही घिरेगा।
गौरी लंकेश की हत्या को लेकर कई राजनीतिक दल जिस तरह न्यायाधीश की भूमिका में आ गए हैैं और अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचते दिख रहे हैैं उससे तो यही अधिक प्रकट हो रहा है कि उनकी दिलचस्पी इस हत्या का राजनीतिक लाभ उठाने में ही अधिक है। इसमें दो राय नहीं कि गौरी लंकेश हिंदूवादी संगठनों की प्रबल आलोचक थीं, लेकिन क्या इतने मात्र से उनकी हत्या के लिए भाजपा, संघ और यहां तक कि मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? कुछ राजनीतिक दल यही कर रहे हैैं। हैरानी यह है कि कांग्रेस यह काम कुछ ज्यादा ही बढ़चढ़ करके कर रही है, जबकि कर्नाटक में उसकी ही सरकार है। कांग्रेस जैसा रवैया वामपंथी दलों का भी है जिनके शासन वाले केरल में राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं आम बात है। हत्या जैसे जघन्य अपराध पर विचारधारा के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना कुल मिलाकर समाज को गलत संदेश देना है। कम से कम राजनीतिक दलों को तो ऐसी क्षुद्रता से बचना चाहिए, क्योंकि जब वे दोहरा रवैया अपनाते हैैं तो फिर उनके समर्थक भी मनमानी करते हैैं। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का यह मतलब नहीं हो सकता और न ही होना चाहिए कि हिंसा-हत्या के किसी मामले में तो मुखर होकर विरोध किया जाए और किसी अन्य मामले में मौन सा धारण कर लिया जाए। सभ्य समाज की निशानी यही है कि हर विचारधारा के लोगों को सम्मान मिले और उनसे सहमति अथवा असहमति लोकतांत्रिक एवं मर्यादित तरीके से व्यक्त की जाए। हमारे राजनीतिक दल यह जितनी जल्द सीखें, उतना ही बेहतर।

[ मुख्य संपादकीय ]