यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस के अवसर पर एक देश-एक चुनाव की आवश्यकता नए सिरे से रेखांकित की। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस आवश्यकता की पूर्ति की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जाएगा। एक देश-एक चुनाव का विचार वह विचार है जिसकी चर्चा पिछले कई वर्षो से हो रही है, लेकिन किसी दिशा पर पहुंचती नहीं दिख रही है।

इसका कारण यह है कि अधिकांश विपक्षी दल राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने के स्थान पर क्षुद्र राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर अपना दृष्टिकोण पेश करने में लगे हुए हैं। विपक्षी राजनीतिक दलों के ऐसे रवैये को देखते हुए उचित यही होगा कि सरकार इस विचार को अमल में लाने के लिए अपने स्तर पर आगे बढ़े। जिस किसी विचार पर अमल का समय आ गया हो उस पर देरी करना ठीक नहीं।

आखिर यह एक तथ्य है कि स्वतंत्रता के बाद डेढ़-दो दशक तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे और किसी को कोई समस्या नहीं थी। फिर वही काम अब क्यों नहीं हो सकता है? यदि यह काम नहीं हो पा रहा है तो केवल संकीर्ण स्वार्थो के कारण। ऐसे स्वार्थ न तो राष्ट्र के हित में हैं और न राजनीति के।

यदि पहले की तरह लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होने लगें तो एक तो बार-बार होने वाले चुनावों के कारण देश की राजनीति का ध्यान राष्ट्रीय हितों से भटकने की समस्या का समाधान होगा और दूसरे, राष्ट्रीय संसाधनों की भी बचत होगी।

जब हर कोई यह महसूस कर रहा है कि चुनाव संबंधी आदर्श आचार संहिता के कारण विकास की योजनाएं भी थम जाती हैं तब यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि एक के बाद एक चुनाव के सिलसिले को थामा जाए। इसके अलावा एक अन्य समस्या बार-बार चुनावों के कारण उपजने वाली राजनीतिक-सामाजिक कटुता की भी है।

यह किसी से छिपा नहीं कि अक्सर चुनावी माहौल समाज में तनाव बढ़ाने का काम करता है। यह ठीक है कि लोकतंत्र की मजबूती के साथ हाल के वर्षो में कुछ अहम सुधार किए गए हैं, लेकिन अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि हर स्तर पर उस परिपक्वता का प्रदर्शन किया जा रहा है जो चुनावी माहौल को दुरुस्त रखने के लिए आवश्यक है। निश्चित रूप से एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में कुछ संशोधन करने होंगे, लेकिन यह कोई ऐसा काम नहीं जो बहुत कठिन हो। यदि राजनीतिक सहमति बने तो यह काम अधिक आसानी से किया भी जा सकता है। ऐसी ही राजनीतिक सहमति की आवश्यकता देरी के शिकार अन्य चुनावी सुधारों को लेकर भी है।