भले ही दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में प्रदूषण की गंभीर स्थिति पर सबका ध्यान केंद्रित हो, लेकिन सच यह है कि दिल्ली-एनसीआर सरीखी स्थिति उत्तर भारत के अन्य अनेक शहरों की भी है। इनमें केवल पटना, कानपुर, वाराणसी, चंडीगढ़ और जालंधर जैसे बड़े शहर ही नहीं, बल्कि गया, ग्वालियर, मुरादाबाद सरीखे शहर भी शामिल हैं। इतना ही नहीं, उत्तर भारत के बाहर के भी कई शहरों में प्रदूषण गंभीर स्थिति में पहुंचता दिख रहा है। उदाहरण स्वरूप महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक के शहर भी प्रदूषण की चपेट में दिख रहे हैं। विडंबना यह है कि जहां दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण पर गंभीर चर्चा के बावजूद उससे निपटने के ठोस उपाय अमल में नहीं लाए जा पा रहे हैं वहीं देश के अन्य शहरों में प्रदूषण की गंभीरता को लेकर कोई ठोस चर्चा तक नहीं हो पा रही है। यदि यह मान भी लिया जाए कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण रोधी उपायों पर इसलिए काम नहीं हो पा रहा है, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों में तालमेल नहीं है तो फिर बाकी राज्यों में कहीं कोई ठोस पहल क्यों नहीं हो रही है? कम से कम अन्य राज्यों के बारे में तो ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता कि उनकी विभिन्न एजेंसियों में भी तालमेल नहीं है।
दिल्ली-एनसीआर के साथ हरियाणा और पंजाब के शहरों में प्रदूषण की खतरनाक स्थिति के लिए फसलों के अवशेष को जलाए जाने को एक सीमा तक ही उत्तरदायी माना जा सकता है, क्योंकि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के एक हिस्से को छोड़ दें तो देश के अन्य हिस्सों में फसलों के अवशेष नहीं जलाए जाते। इस सबसे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि वायु प्रदूषण के मूल कारण धूल और धुआं हैं। प्रदूषण को बढ़ाने वाले धुएं का उत्सर्जन कल-कारखानों के साथ-साथ वाहनों से भी होता है। चूंकि हमारे ज्यादातर बड़े शहरों में वाहनों की संख्या बढ़ती जा रही है और वे जाम से भी ग्रस्त बने रहते हैं इसलिए वाहनों से धुएं का उत्सर्जन प्रदूषण का एक बड़ा कारण बन रहा है। स्थिति इसलिए गंभीर है, क्योंकि एक ओर जहां वाहनोें की संख्या बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर खटारा वाहनों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों की सभी एजेंसियां इससे भली तरह परिचित हैं कि सड़कों और निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल, वाहनों का उत्सर्जन और कारखानों से निकलने वाला धुआं शहरों के वायुमंडल को दूषित कर रहे हैं, लेकिनवे ठोस उपायों के साथ सामने नहीं आ पा रही हैं। ऐसी स्थिति इसलिए आई है, क्योंकि संकीर्ण राजनीतिक कारणों के चलते हमारे नीति-नियंता इन उपायों पर अमल ही नहीं करना चाहते। यदि शहरों का इसी तरह अनियोजित एवं बेतरतीब विकास होता रहा और वे अतिक्रमण और जाम से ग्रस्त बने रहे तथा प्रदूषण रोधी उपायों को अमल में नहीं लाया गया तो शहरी जीवन और अधिक कष्टकारी होना तय है। बेहतर हो कि शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर बैठे लोग यह समझें कि बढ़ता वायु प्रदूषण शहरी जीवन के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभर आया है।

[ मुख्य संपादकीय ]