आखिरकार असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी की अंतिम लिस्ट सामने आ गई। इस लिस्ट के अनुसार 19 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं जो अपनी भारतीय नागरिकता साबित नहीं कर पाए हैं। हालांकि यह एक बड़ी संख्या है, लेकिन असम के ही कई नेता यह सवाल कर रहे हैं कि क्या केवल इतने ही लोग बांग्लादेश से घुसपैठ करके आए थे? इसी के साथ ऐसे सवाल भी उठ रहे हैं कि इन 19 लाख लोगों का क्या होगा? यह सवाल इसके बावजूद उठ रहा है कि एनआरसी में नाम न होने वालों को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपील का अधिकार दिया गया है। अपील करने की समय सीमा भी 60 से बढ़ाकर 120 दिन कर दी गई है। इतना ही नहीं, अगर कोई फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के फैसले से संतुष्ट नहीं होता तो उसे अदालत जाने का अधिकार होगा। इसके बावजूद एनआरसी पर संकीर्ण राजनीति शुरू हो गई है।

राजनीति करने के लिए इस तथ्य की अनदेखी की जा रही है कि एनआरसी तैयार करने का काम सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत किया गया है। जो लोग एनआरसी की खामियों के सहारे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं वे वही हैं जो यह समझने को तैयार नहीं कि जहां करोड़ों लोगों की छानबीन होनी हो वहां कुछ गलती रह जाना स्वाभाविक है। उन्हें यह पता होना चाहिए कि गलतियां दूर करने की हर संभव कोशिश हो रही है।

एनआरसी को लेकर राजनीति का एक मैदान असम के बाहर भी तैयार हो रहा है। कई राज्यों में असम की तर्ज पर एनआरसी की मांग हो रही है। पता नहीं इन मांगों का क्या होगा, लेकिन यह समझना जरूरी है कि भारत कोई धर्मशाला नहीं कि जो चाहे यहां आकर बस जाए। दुर्भाग्य से असम और आसपास के अन्य राज्यों के साथ पश्चिम बंगाल में ऐसा ही हुआ। इन राज्यों में कई इलाके ऐसे हैं जहां बांग्लादेशी लोगों के आधिक्य के कारण सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक माहौल बदल चुका है।

असम में एनआरसी तैयार करने का एक बड़ा आधार यही था कि राज्य की सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ यहां के मूल निवासियों की पहचान के लिए खतरा पैदा हो गया था। विडंबना यह है कि कई राजनीतिक दल इस खतरे की अनदेखी करने की वकालत कर रहे हैं। यह ठीक नहीं। आज जब हर देश अपने और विदेशी नागरिकों की पहचान सुनिश्चित कर रहा है तब भारत को भी यह तय करना चाहिए कि देश में रहने वाला कौन भारतीय है और कौन नहीं? चूंकि यह पहचान तय करना वक्त की मांग है इसलिए एनआरसी का काम उदाहरण पेश करने वाला होना चाहिए। इससे ही एनआरसी पर हो रही राजनीति थमेगी।