प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में सरयू नहर परियोजना का लोकार्पण करते हुए यह जो कहा कि डबल इंजन की सरकारें विकास का पर्याय साबित होती हैं उस पर विपक्षी दलों को कटाक्ष करने से अधिक चिंतन करना आवश्यक है। विपक्षी दल प्रधानमंत्री के वक्तव्यों पर अपनी तरह से अपने विचार व्यक्त करने और इस क्रम में उनसे असहमति जताने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता और न किसी को करना चाहिए कि विकास एवं जनकल्याण के मामलों में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करने की आवश्यकता है।

उचित यह होगा कि डबल इंजन सरकारों के संदर्भ में प्रधानमंत्री के कथन को इस रूप में भी समझा जाए कि वे विकास के कार्यक्रमों पर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोग, सहमति और समन्वय की आवश्यकता को रेखांकित कर रहे हैं। भले ही सभी राजनीतिक दल जनकल्याण और विकास की बातें करते रहते हों, लेकिन सच्चाई यह है कि कई बार विकास के मामलों में संकीर्ण राजनीति होती हुई दिखाई देती है। यह राजनीति तब कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण साबित होती है जब किसी योजना-परियोजना को शुरू करने अथवा उसे आगे बढ़ाने के मामले में केंद्र और राज्य सरकार के बीच आवश्यक सहमति देखने को नहीं मिलती।

दलगत राजनीति अपनी जगह है, लेकिन विकास के कामों में इस राजनीति को बाधा नहीं बनना चाहिए। यदि राज्यों को प्रगति पथ पर तेजी से आगे बढ़ना है और देश को भी उन ऊंचाइयों की ओर ले जाना है जिनके बारे में राजनीतिक दल लगातार बातें करते रहते हैं तो फिर उन्हें विकास के मामले में सस्ती राजनीति करना बंद करना होगा। यह ठीक नहीं कि राष्ट्र के विकास के बजाय दलगत हितों को महत्व दिया जाए। इस सिलसिले में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई बार कुछ राज्य सरकारें राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं पर केंद्र सरकार को अपेक्षित सहयोग देने से इन्कार करती हैं।

कुछ मामलों में तो वे अंतरराष्ट्रीय संधियों-समझौतों के क्रियान्वयन में भी बाधक बन जाती हैं। बतौर उदाहरण यदि बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर समझौता आगे नहीं बढ़ पा रहा है तो सिर्फ बंगाल सरकार के रवैये के कारण। जेवर एयरपोर्ट की परियोजना भी राजनीतिक असहयोग के कारण लंबे समय तक अटकी रही। यहां तक कि कोरोना महामारी से बचाव के लिए टीकाकरण जैसा महत्वपूर्ण अभियान भी राजनीतिक हितों की चिंता से बच नहीं सका। जब भी इस तरह का राजनीतिक असहयोग प्रदर्शित किया जाता है तो इसकी कीमत देश और समाज को चुकानी पड़ती है। न केवल परियोजनाओं के अमल में देरी होती है, बल्कि उनकी लागत भी कहीं अधिक बढ़ जाती है। सरयू नहर परियोजना की लागत सिर्फ इसलिए सौ गुना बढ़ गई, क्योंकि इसे पूरा करने में दशकों लग गए।