यह अच्छा नहीं हुआ कि एक साथ चुनाव कराने के मसले पर प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई बैठक में कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों ने भाग लेना भी उचित नहीं समझा। समझना कठिन है कि इन दलों के जो नेता यह कहते हुए दिख रहे हैैं कि इस या उस कारण एक साथ चुनाव कराना ठीक नहीं उन्होंने अपनी बात उक्त बैठक में कहने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या यह दिखाने के लिए कि वे प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई बैठक का भी बहिष्कार कर सकते हैैं? आखिर इस नतीजे पर क्यों न पहुंचा जाए कि ये राजनीतिक दल केवल विरोध के लिए विरोध दर्ज कराने की मानसिकता से ग्रस्त हैैं? आखिर ऐसे दलों से यह अपेक्षा कैसे की जाए कि वे राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर आम सहमति की राजनीति के पक्षधर हैैं?

ध्यान रहे कि यही दल रह-रहकर यह शोर मचाते हैैं कि मोदी सरकार सहमति की राजनीति पर यकीन नहीं रखती। सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार नकारात्मक राजनीति का प्रमाण ही नहीं, इस बात का सूचक भी है कि इस लोकसभा में भी विरोध की खातिर विरोध की राजनीति जारी रहने वाली है। सर्वदलीय बैठक से दूरी बनाने वाले दल चाहे जो तर्क दें, वे इससे अनजान नहीं हो सकते कि बार-बार होने वाले चुनाव देश और खुद उनके संसाधन की बर्बादी का कारण बनते हैैं। आखिर यह कितना उचित है कि करीब ढाई महीने लंबी चुनाव प्रक्रिया से मुक्त होते ही हरियाणा, महाराष्ट्र आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारी होने लगी है? इन राज्यों के चुनावों के बाद कुछ और राज्यों में चुनाव की तैयारी होने लगेगी।

यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि एक साथ चुनाव का विरोध कर रहे दल अपने संकीर्ण स्वार्थों के आगे देश हित की चिंता करने के लिए तैयार नहीं। आम चुनाव के अतिरिक्त रह-रहकर होते रहने वाले विधानसभा चुनावों के कारण समय और संसाधन की जो बर्बादी होती है वह एक तरह से राष्ट्रीय क्षति होती है। यह क्षति इस कारण होती है, क्योंकि पक्ष-विपक्ष बार-बार के चुनावों के कारण शासन-प्रशासन को बेहतर बनाने और जन समस्याओं के समाधान पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। आज यदि हमारा देश अनेक विकासशील देशों से पीछे है तो शायद इसका एक कारण रह-रहकर होने वाले चुनावों में समय और धन की बर्बादी भी है।

कल्पना करें कि अगर 1967 के बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हो रहे होते तो देश का कितना पैसा और वक्त बचा होता? एक साथ चुनाव के विरोध में दी जा रही दलीलों का ज्यादा मतलब इसलिए नहीं, क्योंकि आजादी के बाद 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। आखिर जो पहले संभव था वह अब क्यों नहीं हो सकता? सवाल यह भी है कि जब हाल के लोकसभा चुनावों के साथ ओडिशा, आंध्र, सिक्किम और अरुणाचल के विधानसभा चुनाव हो सकते हैैं तो फिर बाकी राज्यों के क्यों नहीं हो सकते? यह दलील भी खोखली ही अधिक है कि एक साथ चुनावों से क्षेत्रीय दल घाटे में रहेंगे, क्योंकि ओडिशा और आंध्र में क्षेत्रीय दल ही सरकार बनाने में सफल रहे हैैं।

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