मुख्यमंत्री के चयन को लेकर राजनीतिक दल आलाकमान की संस्कृति से बाहर नहीं आ पा रहे
मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुमत से दूर रही कांग्रेस की सरकारों की कमान ऐसे हाथों में हो जो उन्हें स्थायित्व दे सके।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मुख्यमंत्री का चयन करना मुश्किल हो रहा है तो इसीलिए कि वह किसी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से तो सलाह ले रहे हैैं, लेकिन जीते हुए विधायकों से नहीं। आखिर वह विधायकों की मंशा के हिसाब से कोई फैसला क्यों नहीं करते-ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने करीब पांच साल पहले कर्नाटक में किया था और जिसके चलते सिद्दरमैया को मुख्यमंत्री पद मिला था? यह ठीक है कि इन तीनों राज्यों के विधायकों ने मुख्यमंत्री चयन का अधिकार पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी पर छोड़ दिया है, लेकिन यह और कुछ नहीं आलाकमान संस्कृति को मजबूत करना ही है।
यह अजीब है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल आलाकमान की संस्कृति से बाहर नहीं आ पा रहे हैैं। वे न तो प्रत्याशियों के चयन का कोई पारदर्शी एवं लोकतांत्रिक तरीका विकसित कर पाए हैैं और न ही मुख्यमंत्री के चयन का। पहले यह माना जा रहा था कि केवल राजस्थान और मध्य प्रदेश में ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार का चयन करना कठिन है, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि ऐसी ही कठिनाई छत्तीसगढ़ में भी खड़ी हो गई है। मध्य प्रदेश और राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के समर्थक अपने-अपने नेता के पक्ष में नारेबाजी कर रहे हैैं। नि:संदेह यह कोई आदर्श स्थिति नहीं। यदि कांग्रेस समर्थकों के बीच अपनी पसंद के मुख्यमंत्री को लेकर खींचतान लंबी खिंची तो इससे गुटबाजी को ही हवा मिलेगी।
एक कायदा तो यह कहता है कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान यानी तीनों ही राज्यों में जिस पार्टी अध्यक्ष के नेतृत्व में चुनाव लड़े गए उसे ही मुख्यमंत्री पद प्रदान किया जाए। इसका मतलब है राजस्थान में सचिन पायलट, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल। इसके अतिरिक्त युवाओं को आगे बढ़ाने की नीति को तरजीह देकर तीनों ही राज्यों में युवा नेताओं को मुख्यमंत्री पद पर आसीन किया जा सकता है। ऐसा करने पर मध्य प्रदेश में कमलनाथ पिछड़ जाएंगे और ज्योतिरादित्य सिंधिया आगे आ जाएंगे। वैसे दोनों ही सांसद हैैं और उनकी राजनीति दिल्ली में अधिक केंद्रित रही हैै, लेकिन जहां कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र छिंदवाड़ा और उसके आसपास तक सीमित है वहीं सिंधिया का असर पूरे मध्य प्रदेश में है। यह भी एक तथ्य है कि कमलनाथ विवादों से दो-चार होते रहे हैैं।
सिख विरोधी दंगों में उनकी कथित भूमिका के चलते उनके नाम पर अकाली दल की आपत्ति आ ही गई है। इस सबके बावजूद यह भी सही है कि अनुभव की दृष्टि से कमलनाथ आगे हैैं। यही स्थिति राजस्थान में है। युवा और साफ छवि वाले सचिन पायलट के मुकाबले अशोक गहलोत के पास कहीं अधिक अनुभव है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पांच साल पहले उनके मुख्यमंत्री रहते ही कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई थी। पता नहीं राहुल गांधी इन सब पहलुओं के साथ जातीय समीकरणों को भी देखेंगे या नहीं, लेकिन उन्हें इसकी चिंता तो करनी ही होगी कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुमत से दूर रही कांग्रेस की सरकारों की कमान ऐसे हाथों में हो जो उन्हें स्थायित्व दे सके।