ऐसा लगता है कि हमारे राजनीतिक दलों को यह साधारण सी बात सीखना शेष है कि किन मसलों पर क्षुद्र राजनीति से बचा जाना चाहिए? वे न केवल यह सीखने से इन्कार कर रहे हैं, बल्कि यह भी प्रकट कर रहे हैं कि उन्हें अपनी पुरानी भूलों से सीख लेना नहीं आता। बालाकोट में आतंकियों के ठिकानों पर भारतीय वायुसेना की साहसिक और पाकिस्तान के होश ठिकाने लगाने वाली कार्रवाई को लेकर इस या उस बहाने बेजा सवाल उठाने का सिलसिला कायम रहना यही बताता है कि राजनीतिक दल अपनी बुरी आदत से बाज नहीं आना चाहते। एक ओर वे वायुसेना की कार्रवाई की प्रशंसा करते हुए उसे बधाई दे रहे हैं और दूसरी ओर बेजा सवाल उछालते हुए यह भी कह रहे कि सरकार इस सैन्य कार्रवाई का राजनीतिक लाभ उठा रही है।

आखिर वे किस आधार पर इस नतीजे पर पहुंच गए, क्योंकि प्रधानमंत्री की ओर से तो बालाकोट हमले को लेकर सीधे तौर पर कुछ कहा ही नहीं गया। क्या इससे बुरा और कुछ हो सकता है कि जहां कुछ विरोधी नेता यह जानना चाह रहे हैं कि बालाकोट में कितने आतंकी मरे वहीं कुछ इस चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं कि पाकिस्तान यह क्यों नहीं कह रहा कि भारतीय वायुसेना की कार्रवाई में उसके आतंकी ठिकानों को भारी नुकसान हुआ? आखिर उन्हें अपने देश की सरकार पर ज्यादा भरोसा है या पाकिस्तान की सरकार पर? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वे यह क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि पाकिस्तान उनके बयानों का किस तरह इस्तेमाल कर रहा है? 21 विपक्षी दलों को वह बयान जारी करके क्या हासिल हुआ जिसकी व्याख्या पाकिस्तान ने इस रूप में आसानी से कर ली कि भारत के विरोधी दल अपने प्रधानमंत्री के रवैये से असंतुष्ट और असहमत हैं? आखिर इस तरह के बयान से किन राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हुई?

नि:संदेह राजनीतिक एकजुटता का यह मतलब नहीं हो सकता कि विपक्ष सवाल उठाने के अपने अधिकार का परित्याग कर दे, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल राजनीतिक रोटियां सेंकने अथवा दुनिया को भारत में राजनीतिक बिखराव का संदेश देने के लिए तो नहीं ही किया जाना चाहिए। सवाल पूछने के अधिकार का कैसा मनमाना इस्तेमाल किया जा रहा, इसकी ताजा मिसाल राहुल गांधी का वह कथन है जिसमें उन्होंने राफेल सौदे में देरी के लिए प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराया। वह इतने तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने चौकीदार चोर...का अपना सस्ता जुमला भी फिर से उछाल दिया। आखिर वह किसे गुमराह करना चाहते हैं, क्योंकि इस सच्चाई से तो हर कोई परिचित है कि मनमोहन सरकार किस तरह इस जरूरी रक्षा सौदे को लटकाए रही।

पता नहीं प्रधानमंत्री का यह कहना कितना सही है कि आज अगर राफेल होता तो नतीजा इससे अलग होता, लेकिन यह एक शर्मनाक तथ्य है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने सेना की जरूरतों को पूरा करने से इन्कार किया। इसे राष्ट्रीय सुरक्षा की घोर अनदेखी ही नहीं, एक किस्म की आपराधिक लापरवाही भी कहा जाएगा। यदि राजनीतिक दल राजनीति के स्तर को ऊंचा नहीं उठा सकते तो कम से कम वे उसे रसातल में तो न ले जाएं।