इस पर आश्चर्य नहीं कि नगर निकाय शहरों के ढांचे में सुधार करने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। उनकी यह असफलता इसलिए चिंताजनक है कि जैसे-जैसे शहरी आबादी की बेहतर जीवनशैली को लेकर उम्मीदें बढ़ रही हैं वैसे-वैसे नगर निकाय उन्हें पूरा करने में नाकाम हो रहे हैं। इसके चलते शहरी जीवन अनेक समस्याओं से घिरता चला जा रहा है। शहरों में बेहतर जीवन स्तर की जो कल्पनाएं की जाती हैं वे पूरी नहीं हो रही हैं। हमारे शहर विस्तार तो ले रहे हैं, लेकिन उनमें सुविधाओं का स्तर सिमट रहा है।

शहरी ढांचे में सुधार करने और आवश्यक मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने की बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन उनके अनुरूप काम नहीं हो रहा है। चूंकि शहरी ढांचे को सुधारने की गति धीमी है और शहरों में आबादी तेजी से बढ़ती चली जा रही है इसलिए शहरी जीवन और अधिक कष्टकारी होता जा रहा है। हमारे शहर केवल अव्यवस्थित विकास, गंदगी और ट्रैफिक जाम आदि से ही नहीं जूझ रहे हैं, बल्कि वे प्रदूषण से भी ग्रस्त हैं। जब भी विश्व के प्रदूषित शहरों की गणना होती है तो उनमें भारत के शहर प्रमुखता से नजर आते हैं।

हमारे नीति-नियंता अनियोजित विकास से होने वाली समस्याओं की गंभीरता को समझने के लिए तैयार नहीं। यह स्थिति तब है जब वे दुनिया के दूसरे शहरों से शहरी ढांचे को सुधारने की सीख भी लेते रहते हैं। शहरों की दुर्दशा का कारण केवल अनियोजित विकास ही नहीं है। इसके साथ-साथ दूरदर्शी और टिकाऊ योजनाओं का अभाव भी है। शहरी ढांचे को सुदृढ़ करने के मामले में ऐसी योजनाएं मुश्किल से ही बनती हैं जो अगले पचास-सौ वर्षों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हों। यही कारण है कि नई सड़कें और फ्लाईओवर कुछ ही वर्षों में अपर्याप्त सिद्ध होने लगते हैं।

हमारे शहरों की समस्याएं इसलिए भी नहीं दूर हो पा रही हैं, क्योंकि ऐसे नगर-नियोजकों का अभाव है जो शहरी ढांचे को सुदृढ़ करने के विशेषज्ञ हों। देश के छोटे-बड़े शहरों की एक बड़ी समस्या उनकी देखरेख करने वाले नगर निकायों की शिथिलता है। वे अकुशलता, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के साथ-साथ सस्ती राजनीति का अड्डा बन गए हैं। यह जो आशा की जा रही थी कि नगर निकायों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से लैस हो जाने से उनकी कार्यप्रणाली सुधर जाएगी वह पूरी नहीं हो सकी है।

उचित यह होगा कि इस संदर्भ में हमारे नीति-नियंता गंभीरता से विचार करें कि कमी कहां है। शहरों के आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए जितने धन की आवश्यकता होती है उतना नगर निकाय कठिनाई से ही जुटा पाते हैं। ऐसे नगर निकायों की गिनती करना कठिन है जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों। स्थिति यह है कि कई नगर निकाय तो अपने कर्मचारियों को वेतन देने लायक संसाधन भी नहीं जुटा पाते। समय आ गया है कि इन सब कारणों पर नए सिरे से नीर-क्षीर ढंग से विचार किया जाए।