पंजाब सरकार ने अध्यापकों के लिए जो नई तबादला नीति बनाकर इसे लागू करने का फैसला लिया है निश्चित तौर पर यह सरकार का एक सराहनीय कदम है। सरकार के इस फैसले से जहां दूर दराज के क्षेत्रों में बच्चों को अध्यापक मिलेंगे वहीं पर राजनीतिक पहुंच के चलते एक ही स्कूल में एक ही स्थान पर पिछले कई वर्षो से कुंडली मारे बैठे अध्यापक भी हिलेंगे। दूसरी ओर जो अध्यापक बहुत जल्दी जल्दी तबादले से परेशान होतें हैं उन्हें भी राहत मिलेगी क्योंकि तीन साल से पहले किसी का तबादला नहीं होगा। इतना स्थायित्व तो होना ही चाहिए। इतना ही नहीं, जिस तरीके से पॉलिसी का ड्राफ्ट बनाया गया है यदि हूबहू यह धरातल पर लागू होता है तो उससे शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। ट्रांसफर पालिसी में उन अध्यापकों को वरीयता दी है जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं।

मतलब सरकार खुद मानती है कि सरकारी अध्यापकों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते हैं और वह इसके लिए बाध्य भी नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि सरकारी अध्यापकों के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तो फिर हम उनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अपेक्षा भी कैसे कर सकते हैं। सरकार को वरीयता देने के बजाए पॉलिसी में ही नहीं बल्कि सर्विस रूल्स में ही शर्त लगानी चाहिए और उसे कड़ाई से लागू करवाना चाहिए कि जो भी अध्यापक सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ाएं। जब अध्यापकों को अपनी दी हुई शिक्षा की गुणवत्ता पर खुद ही भरोसा नहीं है तो फिर आमजन सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को क्यों पढ़ाएगा। अध्यापकों के लिए ऐसी शर्त रखने से जहां स्कूलों में बच्चों की संख्या को लेकर हर साल खड़ा होने वाला झंझट खत्म हो जाएगा वहीं पर सरकारी स्कूलों के प्रति जो लोगों के मन में मिथक बने हुए हैं वह भी टूटेंगे। वैसे भी सरकारी स्कूल में उन्हीं परिवारों के बच्चे शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते है जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। सरकार यदि सही में ही शिक्षा का स्तर उठाना चाहती है तो उसे ऐसे कदम उठाने ही पड़ेंगे।

[ स्थानीय संपादकीय: पंजाब ]