फिलवक्त बिहार पुलिस अपने इस्तकबाल को लेकर कड़ी चुनौती ङोल रही है। रोजाना कहीं न कहीं खाकी वर्दी के कामकाज को लेकर आमजनों का गुस्सा उग्र रूप ले लेता है। कोपस्वरूप जवानों के आर्म्स छीन लिए जाते हैं। थानों पर हमला बोल दिया जाता है, बड़ी घटना होने पर पुलिस नियंत्रण के लिए जाती है तो उसके वाहन फूंक दिए जाते हैं। सरकार हमेशा पुलिस को मित्रवत काम करने की सलाह देती है, परंतु धरातल पर ना तो पुलिसजन इस भावना से काम करते दिखाई देते हैं और ना ही पब्लिक में यह सोच विकसित हो रही है कि पुलिस उसकी दोस्त हो सकती है। कुछ साल पहले राज्य सरकार ने पुलिस को पीपुल फ्रेंडली बनाने के लिए यह जिम्मा सौंपा था कि हर थाने के पुलिसकर्मी अपने इलाके के उन बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखाएंगे जो घर-मोहल्ले में बेगारी कर बचपन को जाया कर रहे हैं। सरकार का यह आदेश हवा-हवाई हो गया है। किसी थाने के प्रभारी ने कभी यह क्लेम नहीं किया कि उसने अपने इलाके में स्कूल का मुंह न देखने वाले बच्चों का नामांकन कराया है। आमजनों का मित्र बनने की बात तो दूर है, पुलिस अपने संवर्ग में भी मित्रवत व्यवहार से परे नजर आने लगी है।

अभी तक सेना में छुट्टी न मिलने पर जवानों के आत्महत्या करने या गुस्से में अफसर पर हमले की बातें सामने आती थीं, परंतु अब अवकाश न मिलने पर पुलिसकर्मियों के साथ ऐसे हादसे होने लगे हैं। बीते गुरुवार को गया के परैया थाने में एक दारोगा का सर्विस रिवॉल्वर से खुदकशी करना इसका ताजा उदाहरण है। दारोगा के पुत्र ने डीएसपी पर आरोप लगाया है कि वे बेटी की शादी के लिए लड़का खोजने के लिए भी अवकाश नहीं दे रहे थे जिससे उसके पिता तनाव में चल रहे थे। अभी तक राजधानी पटना में ही पुलिस जोन की बैठक होती है जिसमें जिले से आला अफसर आते हैं और अपराध के आंकड़े गिनाकर लौट जाते हैं। ऐसे में डीजीपी को जोन का मामूली फीडबैक ही मिल पाता है। डीजीपी ने अगले महीने से पुलिस जोन में जाकर कानून-व्यवस्था की स्थिति का जायजा लेने का निर्णय लिया है। वे शुरुआत चार अप्रैल से करेंगे। वे देखेंगे कि पुलिस अधिकारी अपने क्षेत्र में कानून-व्यवस्था के लिए कितने सजग हैं? उम्मीद की जाती है कि नए पुलिस प्रमुख जोन में जाकर हकीकत परखेंगे तो पुलिस में नई कार्यसंस्कृति जन्म लेगी।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]