हैदराबाद में प्रधानमंत्री ने जिस तरह परिवारवाद की राजनीति पर जमकर हमला बोला और उसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया, उससे यही स्पष्ट हुआ कि वह इसे भाजपा का प्रमुख एजेंडा बनाने के लिए कमर कस चुके हैं। यह उल्लेखनीय है कि वह केवल परिवारवाद की राजनीति पर लगातार निशाना ही नहीं साध रहे हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित कर रहे हैं कि भाजपा में इस तरह की राजनीति पर विराम लगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ समय पहले उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा नेताओं की जो संतानें चुनाव मैदान में नहीं उतर सकीं, उसके लिए वह खुद जिम्मेदार हैं।

नि:संदेह यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि परिवारवाद की राजनीति का विरोध करने के पहले भाजपा खुद अपने यहां इस प्रकार की राजनीति को रोके। परिवारवाद की राजनीति के दो पहलू हैं। एक तो यह कि राजनीतिक दलों का नेतृत्व परिवार विशेष के पास ही रहता है और दूसरा यह कि विभिन्न दलों के वरिष्ठ नेता अपने बेटे-बेटियों अथवा भाई-भतीजों को राजनीति में आगे बढ़ाते रहते हैं। स्पष्ट है कि कांग्रेस, सपा, राजद, डीएमके सरीखे जिन दलों का नेतृत्व परिवार विशेष के पास ही रहता है, वे लोकतंत्र को कहीं अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं। ऐसे दलों में परिवार विशेष के सदस्यों के अतिरिक्त अन्य कोई नेता पार्टी की कमान संभाल ही नहीं सकता।

दुर्भाग्य से देश में ऐसे दलों की संख्या तेजी के साथ बढ़ती ही जा रही है, जहां नेतृत्व परिवार विशेष के पास ही रहता है। विडंबना यह है कि इनमें से कई दल ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी राजनीति का आधार ही कांग्रेस के परिवारवाद के विरोध को बनाया था। अब तो स्थिति यह है कि हाल में गठित छोटे-छोटे दल भी परिवारवाद को बढ़ावा देने में जुट गए हैं। इनका गठन तो वंचित तबकों को राजनीति में भागीदारी देने-दिलाने के नाम पर किया गया, लेकिन चुनाव के वक्त उन्हें केवल अपने परिवार के सदस्य ही योग्य उम्मीदवार दिखे।

शायद इसी प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने यह कहा कि परिवारवाद की राजनीति लोकतंत्र के साथ-साथ युवाओं के लिए भी सबसे बड़ी दुश्मन है। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने यह बात उस तेलंगाना में कही, जहां के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने अपने बेटे को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना रखा है। प्रधानमंत्री तेलंगाना के बाद तमिलनाडु पहुंचे। वहां भी सत्तारूढ़ डीएमके में परिवारवाद की राजनीति चरम पर है। यही स्थिति अन्य राज्यों में भी है। अपवाद के रूप में एक-दो दल ही ऐसे हैं, जो परिवारवाद की राजनीति से दूर हैं।