स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के संबोधन की अपनी विशेष महत्ता होती है और शायद इसीलिए देश ही नहीं दुनिया भी उस पर गौर करती है। इस बार प्रधानमंत्री के भाषण को लेकर उत्सुकता इसलिए अधिक थी, क्योंकि यह उनके तीन साल के कार्यकाल के उपरांत और साथ ही स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में होना था। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से चौथी बार भाषण देते हुए जिन तमाम विषयों पर अपनी बात रखी उनमें से कई बातों का जिक्र वह पहले भी करते रहे हैैं, लेकिन उन्होंने उन्हें नए सिरे से शायद इसलिए रेखांकित किया, क्योंकि वह अपने कामों का हिसाब जनता को बताने के हामी रहे हैैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि उन्होंने अपनी तमाम उपलब्धियों का जिक्र विस्तार से किया, लेकिन उनके संबोधन में बहुत कुछ नया और आने वाले कल की ओर संकेत देने वाला भी रहा। उनके संबोधन का सबसे उल्लेखनीय अंश वह रहा जिसमें उन्होंने कश्मीर समस्या के समाधान की उम्मीद जगाई। उन्होंने उग्रवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद से सख्ती से निपटने की अपनी सरकार की नीति को जारी रखने के स्पष्ट संकेत देते हुए यह जो कहा कि ‘कश्मीर समस्या न गाली से सुलझेगी, न गोली से, यह सुलझेगी तो केवल कश्मीरियों को गले लगाने से’ उससे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत के दायरे’ वाले बयान का स्मरण हो आना स्वाभाविक है। यह महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री ने कश्मीरियों को गले लगाने की जरूरत एक ऐसे समय जताई जब देश के इस हिस्से में सेना एवं सुरक्षा बल आतंकियों की कमर तोड़ने में लगे हुए हैैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह स्पष्ट भी किया कि आतंकवाद से लड़ने में कोई कोर कसर उठा नहीं रखी जाएगी।
आतंकवाद के खिलाफ सख्ती बरतने की नीति पर जोर देने के बीच कश्मीरियों को गले लगाने की बात का यही मतलब हो सकता है और होना भी चाहिए कि एक ओर जहां अलगाव और आतंक के समर्थकों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी वहीं दूसरी ओर मुख्यधारा में शामिल होने को तैयार आम कश्मीरियों की अपेक्षाओं को पूरा करने के हर संभव कदम उठाए जाएंगे। इस पर हैरत नहीं कि प्रधानमंत्री के इस बयान को कश्मीर में भी एक शुभ संकेत के रूप में देखा गया। यह समय ही बताएगा कि प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद कश्मीर में हालात बदलने की कोशिश कितना रंग लाएगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इस बार प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को कोई संदेश-सुझाव देने की जरूरत नहीं समझी। इससे कोई संकेत मिलता है तो यही कि पाकिस्तान एक ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि उससे कोई अपेक्षा रखना व्यर्थ है। यह भी उल्लेखनीय है कि डोकलाम विवाद के कारण चीन से तनाव के बावजूद प्रधानमंत्री ने न तो इस विवाद की चर्चा की और न ही बीजिंग को कोई सीधा संदेश दिया। कूटनीति में इसका भी महत्व होता है। प्रधानमंत्री पाकिस्तान के साथ ही चीन का नाम लेने से तो बचे, लेकिन उन्होंने उन देशों की खास तौर पर सराहना की जो भारत को आतंकवाद से लड़ने में मदद दे रहे हैैं। स्पष्ट है कि इतने मात्र से पाकिस्तान और चीन, दोनों को जरूरी संदेश मिल गया होगा।
प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपनी सरकार की ओर से उठाए गए और आगे उठाए जाने वाले कदमों के साथ ही नए भारत के निर्माण का संकल्प तो जताया ही, उसकी एक तस्वीर भी सामने रखी। उन्होंने 2022 तक एक भव्य-दिव्य भारत बनाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की और साथ ही यह रेखांकित किया कि यह वह भारत होगा जो गरीबी, भ्रष्टाचार से मुक्त होने के साथ ही जातिवाद और संप्रदायवाद से मुक्त होगा। इसी के साथ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि देश शांति, सद्भावना और एकता से चलता है। वास्तव में शांति, सद्भाव और एकजुटता के बिना कोई देश सुखद भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकता। देश के बेहतर भविष्य के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि समाज में शांति और सद्भाव सचमुच दिखे। यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री ने एक बार फिर यह रेखांकित किया कि आस्था के नाम पर हिंसा स्वीकार्य नहीं। यह बिल्कुल ठीक नहीं कि जो देश भिन्न-भिन्न आस्था वालों के बीच सद्भाव के लिए जाना जाता हो वहां किसी भी कारण आस्था के नाम पर किसी तरह का बैरभाव देखने को मिले। ध्यान रहे कि जब यह बैरभाव मिटेगा तभी सांप्रदायिकता के जहर से मुक्ति मिलेगी। स्वतंत्रता के 70 साल बाद जातिवाद के जहर से भी मुक्ति मिलनी चाहिए। दरअसल ऐसा होने पर ही प्रधानमंत्री की ओर से दिया गया भारत जोड़ो नारा सार्थक होगा, लेकिन ऐसा नारा केवल किसी प्रधानमंत्री या सरकार का ही नहीं, हर देशवासी का भी होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने भारत को सबके सपनों का देश बनाने में देशवासियों के सहयोग की जो महत्ता ‘टीम इंडिया’ के रूप में रेखांकित की उसका मतलब यही हो सकता है कि देश को बनाने-बढ़ाने में सभी का सहयोग आवश्यक है। शायद इसीलिए उन्होंने ‘चलता है’ वाले रवैये का परित्याग करने की अपेक्षा की। इस रवैये का परित्याग किया जा रहा है, यह शासन-प्रशासन के साथ-साथ समाज के स्तर पर भी दिखना चाहिए। इस मामले में और देर नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि अब इसकी अनुभूति हर कोई करने लगा है कि देश को अपेक्षित गति से आगे ले जाने के लिए नए तौर-तरीके अपनाने की जरूरत है। शायद प्रधानमंत्री ने इसीलिए खास तौर पर यह कहा भी कि अगर कोई काम सही समय पर न हो तो फिर इच्छित परिणाम कभी नहीं मिलते। अच्छा हो कि यह स्वतंत्रता दिवस सबको यह संदेश दे कि सभी को मिलकर कुछ नया और बेहतर करने की जरूरत है।

[ मुख्य संपादकीय ]