संसद के मानसून सत्र में अभी तक कोई विशेष कामकाज न हो पाने के बाद यह जो आशा जगी है कि इस सप्ताह दोनों सदन सही तरह से चलेंगे, उसकी पूर्ति होनी ही चाहिए। न केवल महंगाई, बल्कि राष्ट्रीय महत्व के अन्य मसलों पर भी व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए। यह कुछ इस तरह होना चाहिए कि उससे समस्याओं के समाधान की कोई राह मिल सके। निश्चित रूप से बढ़ती महंगाई एक ज्वलंत विषय है।

विपक्ष पहले दिन से महंगाई को लेकर चर्चा पर जोर दे रहा था, लेकिन वह यह सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं था कि इस चर्चा में वित्तमंत्री का भाग लेना आवश्यक है, जो कोरोना से संक्रमित होने के कारण सदन की कार्यवाही में शामिल होने में असमर्थ थीं। चूंकि अब वह संक्रमण से मुक्त हो गई हैं, इसलिए यह उम्मीद की जा रही है कि आजकल में महंगाई पर चर्चा होगी। यह चर्चा केवल महंगाई का मुद्दा उठाने भर के लिए नहीं, बल्कि आवश्यक वस्तुओं की मूल्य वृद्धि को थामने के ठोस उपायों पर केंद्रित होनी चाहिए।

विपक्ष की कोशिश केवल बढ़ती महंगाई से आम जनता को हो रही परेशानी को रेखांकित करना ही नहीं, बल्कि उन सुझावों को सामने रखने की होनी चाहिए जिससे मूल्यवृद्धि पर लगाम लगाने में मदद मिल सके। चर्चा में भाग लेते समय विपक्ष को यह भी याद रखना होगा कि महंगाई केवल भारत की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक समस्या है और इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम भी एक कारण है। चूंकि अब दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे पर निर्भर हैं इसलिए भारत भी अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से अछूता नहीं रह सकता।

नि:संदेह महंगाई पर लगाम लगना आवश्यक है, लेकिन इसके साथ ही इस पर भी गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है कि अर्थव्यवस्था की गति थमने न पाए। महंगाई थामने के साथ अर्थव्यवस्था को गति देने की जो आवश्यकता है, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। एक ऐसे समय जब महंगाई सिर उठाए हुए है और देश की अर्थव्यवस्था कई समस्याओं से दो-चार है तब फिर संसद में उस रेवड़ी संस्कृति पर भी गंभीर चर्चा होनी चाहिए जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री पिछले कुछ दिनों से कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री रेवड़ी संस्कृति पर लगातार चिंता व्यक्त कर रहे हैं, लेकिन कुछ राजनीतिक दल और राज्य सरकारें इस संस्कृति और जनकल्याण की योजनाओं के बीच के अंतर को समझने के लिए तैयार नहीं। उचित यह होगा कि संसद में पक्ष-विपक्ष इस पर आम सहमति कायम करें कि जनकल्याण के नाम पर क्या किया जाना उचित है और क्या अनुचित? मुफ्तखोरी की संस्कृति जनकल्याणकारी योजनाओं का पर्याय नहीं हो सकती। यह संस्कृति न केवल आम जनता के लिए अहितकारी है, बल्कि राज्यों और साथ ही देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी।