भले ही यह स्पष्ट न हो कि पाकिस्तान के विदेश सचिव किस खास मकसद से यकायक भारत आए हैैं, लेकिन संभावना यही है कि वह भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपने प्रधानमंत्री का कोई संदेश लेकर आए होंगे ताकि दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने को लेकर कोई सहमति कायम हो सके। यह संभावना इसलिए दिख रही है, क्योंकि एक तो पाकिस्तान ने अर्से बाद अपना हवाई क्षेत्र खोला है और दूसरे, इमरान खान भारत से संबंध सुधार के लिए व्यग्र दिख रहे हैैं। इस व्यग्रता का एक बड़ा कारण पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था है। तमाम उपायों के बावजूद पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था संभलने का नाम नहीं ले रही है।

लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के चलते पाकिस्तान ऐसी स्थिति में नहीं कि वह भारत से तनाव जारी रख सके। यह ठीक है कि पाकिस्तान में कुछ लोग यह समझने लगे हैैं कि कश्मीर में दखल जारी रखकर भारत से संबंध नहीं सुधारे जा सकते, लेकिन मुश्किल यह है कि वहां एक तबका अभी भी ऐसा है जो छल-बल से कश्मीर हासिल करने के सपने देख रहा है। इस तबके को ताकत प्रदान कर रही है पाकिस्तानी सेना और जिहादी तत्व।

फिलहाल यह कहना कठिन है कि इमरान खान अपनी सेना और अपने यहां के जेहादी तत्वों को यह समझाने में सफल हैैं या नहीं कि कश्मीर की रट लगाते रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, लेकिन भारत से संबंध सुधार उनके हाथ में ही है। अगर पाकिस्तान अपने सबसे बड़े पड़ोसी देश से संबंध सामान्य नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए वही अधिक जिम्मेदार है। यह पाकिस्तान ही है जिसने संबंध सुधारने के नाम पर भारत को रह-रह कर धोखे दिए हैैं। बीते दो दशक तो खास तौर से पाकिस्तान की धोखेबाजी की कहानी ही कहते हैैं।

फिलहाल किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि पाकिस्तान से रिश्ते कब और कैसे सामान्य होंगे, लेकिन इस अनिश्चितता का यह मतलब नहीं हो सकता कि कश्मीर को सही रास्ते पर लाने के लिए भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त प्रयास न किए जाएं। कश्मीर के हालात ठीक करने का काम तो प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि मोदी सरकार इस बार और अधिक मजबूती से सत्ता में आई है और उसने अनुच्छेद 370 खत्म करने का वादा भी किया है। इस अनुच्छेद को खत्म करने अथवा उसकी खामियों को दूर करने के उपायों पर काम करते हुए मोदी सरकार को यह भी देखना होगा कि कश्मीर के वर्चस्व को कैसे खत्म किया जाए?

जम्मू-कश्मीर की समस्या को केवल घाटी की समस्या के तौर पर देखे जाने के अपने दुष्परिणाम सामने आए हैैं। चूंकि कश्मीर ही ज्यादा चर्चा के केंद्र में रहता है इसलिए जम्मू और लद्दाख की अनदेखी ही होती है। एक समस्या यह भी है कि कश्मीर की हर छोटी-बड़ी घटना को सदैव गंभीर चुनौती के तौर पर देखा जाता है। इसके चलते वहां अलगाववाद ने एक धंधे का रूप ले लिया हैै। जम्मू-कश्मीर में नए सिरे से परिसीमन की तैयारियों के पीछे का सच जो भी हो, उपद्रवग्रस्त घाटी को पटरी पर लाने के लिए हर संभव कदम उठाने का समय आ गया है।

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