कुछ राजनीतिक दल किस तरह गैर-जरूरी मसलों को बेवजह लंबा खींचते हैैं और ऐसा करके अपना और साथ ही देश का वक्त जाया करते हैैं, इसकी ही मिसाल है इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों की 50 फीसद मतदान बाद की पर्चियों का मिलान करने की जिद। पता नहीं 21 विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट में निर्वाचन आयोग की ओर से दी गई इस दलील पर क्या कहेंगे कि 50 फीसद मतदान पर्चियों का मिलान ईवीएम से करने से चुनाव नतीजे घोषित होने में छह से नौ दिन की देरी हो सकती है, लेकिन हैरत नहीं कि वे यह कह दें कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

जो भी हो, विपक्षी दलों का एकमात्र मकसद यही जान पड़ता है कि किसी तरह ईवीएम की विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा किया जाए। वे एक अर्से से ईवीएम के खिलाफ बिना किसी सुबूत के शरारत भरा अभियान छेड़े हुए हैैं। यह अभियान संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि करीब चार महीने पहले ही कांग्रेस ने तीन राज्यों में भाजपा को पराजित किया है। इसके पहले भी उसने गुजरात में उल्लेखनीय जीत हासिल की थी। तथ्य यह भी है कि अतीत में दिल्ली, बिहार, पंजाब आदि के चुनाव नतीजे भी ईवीएम से ही निकले थे और उनमें भाजपा की हार हुई थी। इसी तरह 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों के नतीजे भी ईवीएम आधारित थे। आखिर बीते दो-तीन साल में ऐसा क्या हुआ है कि ईवीएम को बदनाम करने का सिलसिला कायम हो गया है?

ईवीएम को संदिग्ध बताने के लिए किस तरह छल-छद्म का सहारा लेने से भी बाज नहीं आया जा रहा है, इसका एक प्रमाण दिल्ली विधानसभा में एक नकली ईवीएम की नुमाइश से मिला था और अभी हाल में लंदन में एक तथाकथित हैकर के हास्यास्पद दावे से। विडंबना यह है कि ईवीएम विरोधी अभियान को कुछ राजनीतिक दलों के साथ मीडिया का भी एक हिस्सा तूल देता है। बाद में ऐसी दलीलों की आड़ भी ली जाती है कि अब अगर ईवीएम को लेकर संदेह उभर आया है तो फिर उसे दूर किया ही जाना चाहिए। अगर इरादा ही नित-नए संदेह पैदा करना है तो फिर उन्हें कोई दूर नहीं कर सकता।

हैरत नहीं कि कुछ दिनों बाद राजनीतिक दल यह मांग करने लगें कि शत प्रतिशत मतदान पर्चियों का मिलान ईवीएम से किया जाए। ध्यान रहे कि कुछ दल ईवीएम के बजाय बैलट पेपर से मतदान की मांग कर रहे हैैं। यह कुछ वैसी ही विचित्र मांग है जैसे कोई ट्रेन दुर्घटनाओं का जिक्र करते हुए बैलगाड़ी से यात्रा को बेहतर बताए। 50 प्रतिशत मतदान पर्चियों का मिलान ईवीएम से करने की मांग इसलिए अनावश्यक है, क्योंकि निर्वाचन आयोग करीब-करीब हर विधानसभा क्षेत्र के एक बूथ की मतदान पर्चियों का मिलान करता है। अभी तक इसमें कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई है। आखिर जब इस व्यवस्था में कोई विसंगति नहीं मिली तब फिर 50 प्रतिशत मतदान पर्चियों के मिलान की मांग का क्या मतलब? यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को याचिकाओं का निपटारा करना ही होता है, लेकिन उसे यह भी देखना चाहिए कि याचिकाकर्ताओं का मूल मकसद क्या है?