दिल्ली में होने जा रही करीब 20 विपक्षी दलों की बैठक महागठबंधन बनाने की एक और कोशिश ही है। इस कोशिश की सफलता इस पर निर्भर नहीं करेगी कि इस बैठक में कितने राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं, बल्कि इस पर निर्भर करेगी कि वे देश को कोई वैकल्पिक एजेंडा देने की दिशा में आगे बढ़ पाते हैं या नहीं? इसमें संदेह है कि केवल इस तरह की बातों से आम जनता उनकी ओर आकर्षित हो जाएगी कि वे लोकतंत्र को बचाने के लिए एक मंच पर आने की जरूरत समझ रहे हैं।

आखिर यह एक तथ्य है कि दिल्ली में इस बैठक के सूत्रधार माने जा रहे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एवं तेलुगु देसम के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू कुछ समय पहले तक उसी केंद्र सरकार का हिस्सा थे और उसी भाजपा के सहयोगी भी जिसे आज वह लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के लिए खतरे के रूप में चित्रित कर रहे हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन न करने में ही अपनी भलाई समझी तो समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए कोई स्थान नहीं देख रही है। यदि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के संभावित मेल को छोड़ दिया जाए तो अन्य कोई क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं जो किसी दूसरे क्षेत्रीय दल की मदद करने की स्थिति में हो। नि:संदेह वे कांग्रेस का कुछ भला कर सकते हैं, लेकिन आखिर ऐसे कितने राज्य हैं जहां कांग्रेस अपनी शतरें पर किसी क्षेत्रीय दल से तालमेल करने की हालत में है?

यह समझ आता है कि विपक्षी दलों के महागठबंधन के लिए आज क्षेत्रीय दलों से अधिक कांग्रेस लालायित है, लेकिन अगर वह इन दलों से समझौता करेगी तो फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात के अलावा उसे अपने दम-खम का प्रदर्शन करने का मौका कहां मिलेगा? वह क्षेत्रीय दलों का संबल तो बन सकती है, लेकिन उसे यह ध्यान रहे तो बेहतर कि ये दल उसकी कीमत पर ही अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करेंगे। हो सकता है कि कांग्रेस को यह स्थिति स्वीकार्य हो, लेकिन उसे इससे परिचित होना चाहिए कि अधिकांश क्षेत्रीय दलों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव ही अधिक नजर आता है। क्या राष्ट्रीय हितों से अधिक महत्व क्षेत्रीय हितों को देने वाले राजनीतिक दलों का गठबंधन देश की उम्मीदों पर खरा उतर सकता है।

अभी तो महागठबंधन का आकार-प्रकार सुनिश्चित होना शेष है और आम चुनाव में भी देरी है, लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि संप्रग शासन का नेतृत्व करते समय मनमोहन सिंह ने घपलों-घोटालों को लेकर किस तरह यह कहा था कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं? यह तो अभी हाल की ही बात है जब बसपा प्रमुख मायावती ने सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि देश को मजबूत नहीं मजबूर सरकार की जरूरत है। इस पर हैरत नहीं कि भाजपा उनके इस कथन को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में है। महागठबंधन बनाने की कोशिश चाहे जो रंग लाए, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कांग्रेस और साथ ही विपक्षी एकजुटता की जरूरत जताने वाले दल कोई ठोस वैकल्पिक एजेंडा देने की स्थिति में नहीं आ पाए हैं।