इस पर हैरानी नहीं कि संसद फिर नहीं चली। ऐसा होने के आसार तभी उभर आए थे, जब राहुल गांधी ने विपक्षी नेताओं को नाश्ते पर बुलाया था। पता नहीं इस बैठक में क्या तय हुआ, लेकिन ऐसा लगता है कि उसमें संसद को न चलने देने पर ही सहमति बनी। इस बैठक के बाद राहुल गांधी ने अन्य विपक्षी नेताओं के साथ साइकिल मार्च निकाला, ताकि यह दिखा सकें कि पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम किस तरह एक समस्या बन गए हैं। बेशक इस साइकिल यात्रा ने टीवी कैमरों को मनचाहे दृश्य उपलब्ध कराए, लेकिन जब संसद चल रही हो तब सड़क पर प्रदर्शन करना उचित है या फिर उन मुद्दों पर सदन में बहस करना, जिन्हें ज्वलंत बताया जा रहा है? यह वह सवाल है, जिस पर विपक्ष को चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि अभी तो वह अपने आचरण से अवसर गंवाने का ही काम कर रहा है। यह विचित्र है कि विपक्ष एक ओर यह कह रहा है कि कोविड महामारी, कृषि कानूनों से लेकर महंगाई और पेगासस जासूसी कांड जैसे मसलों पर सरकार को घेरा जाएगा, लेकिन जब इसके लिए मौका आता है यानी संसद चलने की बारी आती है, तब वह ऐसा कुछ करता है, जिससे संसदीय कामकाज बाधित हो जाए।

बीते दो सप्ताह से विपक्ष संसद के भीतर अपनी बात कहने के बजाय संसद परिसर में अथवा सड़क पर अधिक सक्रिय दिख रहा है। संसद सत्र के समय सड़क की राजनीति करने पर रोक नहीं, लेकिन विपक्ष इस पर विचार करे तो बेहतर कि इससे उसे हासिल क्या हो रहा है? वह सड़क की राजनीति करके सरकार को घेरने और उससे जवाब मांगने के अपने अधिकार का परित्याग ही कर रहा है। आम तौर पर अभी तक यह देखने को मिलता रहा है कि विपक्ष कुछ दिन संसद के भीतर-बाहर हंगामा करता है, फिर अपनी ओर से उठाए जाने वाले मुद्दों पर बहस के लिए तैयार हो जाता है। इससे उसकी बात न केवल आम जनता तक कहीं प्रभावी तरीके से पहुंचती है, बल्कि वह संसदीय कामकाज का हिस्सा भी बनती है। संसद के बाहर दिए जाने वाले बयान तो अगले 24 घंटे में ही अपनी महत्ता खो देते हैं। विपक्ष एक तरफ संसद नहीं चलने दे रहा है और दूसरी तरफ इस पर आपत्ति जता रहा है कि वहां विधेयक कैसे पारित हो रहे हैं? नि:संदेह बिना बहस अथवा हंगामे के बीच विधेयक पारित होना आदर्श स्थिति नहीं, लेकिन जब विपक्ष संसद न चलने दे तो फिर सत्तापक्ष के पास इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कि वह राष्ट्रीय महत्व के विधेयकों को जैसे-तैसे पारित कराए। ऐसा करना न तो अनुचित है और न ही अवैधानिक।