असहमति की अनदेखी और भीड़ की हिंसा को लेकर 49 बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपनी जो चिंता जाहिर की वह नई नहीं है। इस तरह की चिट्ठियां पहले भी लिखी जा चुकी हैैं। इतना ही नहीं असहिष्णुता बढ़ने का शोर मचाते हुए पुरस्कार भी वापस किए गए हैैं और जनता से यह आग्रह भी किया गया है कि भाजपा को वोट न दें। इस तरह की चिट्ठियां लिखने वाले खुद को लिबरल यानी उदारवादी बताते हैैं, लेकिन शायद वे खुद नहीं जानते कि उदारवाद क्या है? चूंकि ऐसे बुद्धिजीवी चतुराई से चुनिंदा मामलों का उल्लेख करते हुए अपनी एकतरफा सोच ही सामने रखते हैैं इसलिए उनकी अपीलों का कोई असर नहीं होता।

इस नई चिट्ठी का भी असर नहीं पड़ने वाला, क्योंकि इसमें केवल दलितों और अल्पसंख्यकों को ही भीड़ की हिंसा का शिकार बताते हुए इस सच को जानबूझकर ओझल किया गया कि अन्य अनेक वर्गों के लोग भी भीड़ के उन्माद की चपेट में आ रहे हैैं। आखिर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सिक्के का एक ही पहलू दिखाना बौद्धिक बेईमानी नहीं तो और क्या है? वास्तव में इसी रवैये के कारण यह कहा जाने लगा है कि उदारवादी ही उदारवाद के सबसे बड़े शत्रु बन गए हैैं।

49 प्रबुद्ध लोगों ने अपनी चिट्ठी में यह भी लिखा है कि जय श्रीराम नारे को एक भड़काऊ नारे में तब्दील कर दिया गया है और उसके नाम पर भीड़ हिंसा कर रही है। इससे इन्कार नहीं कि ऐसे एक-दो मामले सामने आए हैैं, लेकिन क्या इक्का-दुक्का मामलों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जय श्रीराम नारे का इस्तेमाल दूसरों को डराने के लिए किया जा रहा है? क्या इस सच की अनदेखी कर दी जाए कि जय श्रीराम नारे के नाम पर कथित हिंसा के कई मामले फर्जी भी पाए गए हैैं?

आखिर इन फर्जी घटनाओं को कौन गढ़ रहा है? नि:संदेह भीड़ की हिंसा पर सख्ती से रोक लगाने की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए, लेकिन यह साबित करने का कोई मतलब नहीं कि जय श्रीराम का नारा एक भड़काऊ नारा बन गया है। सदियों से राम का नाम अलग-अलग भाव में लिया जाता रहा है, जैसे सीताराम, सियाराम, राम-राम। इसी कड़ी में जय श्रीराम भी है। इसका उपयोग भक्तिभाव प्रकट करने के साथ ही जोश जगाने या फिर गर्व का भाव व्यक्त करने के लिए होता चला आ रहा है। साफ है कि जय श्रीराम नारे को भड़काऊ करार देना एक किस्म की असहिष्णुता ही है।