सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संबंध में अभद्र ट्वीट करने वाले स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को रिहा होना ही था, लेकिन इस रिहाई के उपरांत भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि आखिर अभिव्यक्ति की आजादी का मनमाना इस्तेमाल करने वालों पर लगाम कैसे लगाई जाए? इस सवाल का जवाब इसलिए तलाशा जाना चाहिए, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को कुछ भी कहने या करने की इजाजत दी जाएगी तो फिर भारत जैसे देश में हालात बिगड़ सकते हैैं।

फर्जी खबरों के इस दौर में हर किसी को और खासकर खुद को पत्रकार कहने वाले को तो कहीं अधिक जिम्मेदारी का परिचय देना चाहिए, चाहे वह किसी मीडिया संस्थान से जुड़ा हो या फिर स्वतंत्र तौर पर सक्रिय हो। जिम्मेदारी का परिचय इसलिए भी दिया जाना चाहिए, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं है। प्रत्येक अधिकार किसी न किसी कर्तव्य का भी बोध कराता है, लेकिन यह साफ है कि प्रशांत कनौजिया को ऐसा कोई बोध नहीं था।

मुश्किल यह है कि उनके जैसे तथाकथित पत्रकारों की कमी नहीं। प्रशांत कनौजिया भले ही स्वतंत्र पत्रकार के तमगे से लैस हों, लेकिन योगी आदित्यनाथ के संदर्भ में उनका ट्वीट पत्रकारिता को शर्मसार करने वाला ही अधिक था। उनके अन्य अनेक ट्वीट भी ऐसे हैैं जो पत्रकारिता की आड़ में किए जाने वाले छिछोरेपन को ही बयान करते हैैं। यदि उनके जैसे लोग पत्रकार के रूप में जाने जाएंगे तो फिर न तो पत्रकारिता की प्रतिष्ठा की रक्षा हो पाएगी और न ही स्वस्थ माहौल में विमर्श हो पाएगा।

इससे इन्कार नहीं कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने प्रशांत कनौजिया को गिरफ्तार कर जरूरत से ज्यादा सख्ती दिखाई। पुलिस को गिरफ्तारी से बचना चाहिए था। कम से कम अब तो उसे यह आभास होना चाहिए कि आनन-फानन गिरफ्तारी से प्रशांत कनौजिया को न केवल अतिरिक्त प्रचार मिला, बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार की किरकिरी भी हुई।

एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्थाओं का प्रशांत कनौजिया के पक्ष में खड़ा होना समझ में आता है, लेकिन क्या इन संस्थाओं को यह नहीं देखना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक स्वतंत्र पत्रकार ने क्या किया? प्रशांत कनौजिया ने जो किया उसे पत्रकारिता के दायरे में रखना तो इस पेशे की साख से खेलना है। क्या एडिटर्स गिल्ड और ऐसी ही अन्य संस्थाओं को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि पत्रकारिता के नाम पर इस पेशे को बदनाम करने वाले काम न होने पाएं?

यह पहली बार नहीं है जब किसी को सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो। ऐसे मामले रह-रहकर सामने आते ही रहते हैैं, लेकिन विडंबना यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करने वाले अलग-अलग मामलों में भिन्न-भिन्न रवैया अपनाते हैैं। इससे बड़ी विडंबना यह है कि कई बार अदालतें भी ऐसा करते दिखती हैैं।

आज जब सोशल मीडिया का दायरा बढ़ता जा रहा है और हर कोई अपने विचार व्यक्त करने के लिए कहीं अधिक स्वतंत्र है तब ऐसी कोई व्यवस्था बननी ही चाहिए जिससे न तो अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग हो सके और न ही जरूरत से ज्यादा कठोर कार्रवाई।

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