शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से अपेक्षाकृत पिछड़े बिहार में पिछले कुछ सालों में नारी सशक्तीकरण को लेकर जिस गंभीरता से प्रयास हुए हैं, वैसी कवायद अन्य राज्यों में नहीं दिखती। यह बात इसलिए भी अहमियत रखती है क्योंकि सूबे में शराब, बाल विवाह और दहेज के कारण महिलाओं की स्थिति चिंताजनक थी। पिछले दो साल के दरम्यान राज्य सरकार ने इन तीनों ही सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ा जिसके फलस्वरूप सूबे की महिलाओं की हालत में उल्लेखनीय सुधार आया।

खास बात यह है कि इस बदलाव की पहल खुद महिलाओं ने की, जब 2015 विधानसभा चुनाव से पहले जीविका कार्यकर्ताओं की एक सभा में कुछ महिलाओं ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मांग की कि शराब पर रोक लगाई जानी चाहिए। मुख्यमंत्री ने उसी वक्त घोषणा कर दी थी कि दोबारा सत्ता में आने पर वह शराब पर प्रतिबंध लगा देंगे। बाद में उन्होंने अपना वचन निभाया और अप्रैल, 2016 में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। बाद में इसके अच्छे नतीजों से प्रोत्साहित होकर सरकार ने दहेज कुप्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी जागरूकता अभियान शुरू किया। इसमें दो राय नहीं कि राज्य सरकार की इस कवायद से सूबे में नारी सशक्तीकरण को लेकर एक नई बयार शुरू हुई। जीवन के विविध क्षेत्रों में सूबे की लड़कियां अपनी मेधा और साहस का परचम फहरा रही हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाओं को सम्मान, बराबरी और प्रोत्साहन देने के लिए राज्य सरकार जो उपाय कर रही है, उनका प्रभाव निचले स्तर तक जाएगा और बिहार वास्तविक मायनों में नारी सशक्तीकरण का नेतृत्व करेगा। शासन-प्रशासन के सामने अब भी सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं के प्रति अपराधों को हतोत्साहित करना है। दुर्भाग्य एवं लज्जाजनक है कि राज्य में अशिक्षा और अज्ञानतावश अब भी डायन प्रथा जैसे कलंक मौजूद हैं और हर साल कई महिलाओं को इस कुप्रथा के जरिए प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है। इसी प्रकार बाल विवाह, दहेज उत्पीड़न, बलात्कार, छेड़छाड़ और अपहरण जैसे अपराध भी जारी हैं। इसके खिलाफ एक तरफ प्रशासन को सख्ती बरतनी होगी, वहीं दूसरी तरफ समाज को अपनी सोच बदलनी होगी। इस महिला दिवस की सार्थकता इस संकल्प से ही साबित होगी।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]