नीति आयोग की ‘स्वस्थ राज्य और प्रगतिशील भारत’ नाम से सामने आई रपट के अनुसार देश के 21 बड़े राज्यों में से 17 में लिंग अनुपात में गिरावट दर्ज की गई है। इस मामले में जिन राज्यों की हालत चिंताजनक है उनमें गुजरात के साथ-साथ हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल और छत्तीसगढ़ शामिल हैैं। यह तनिक गनीमत तो है कि पंजाब, उत्तर प्रदेश और बिहार के हालात कुछ सुधरते दिख रहे हैैं, लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं कि उत्साहित हुआ जा सके। लिंग अनुपात की खराब स्थिति इसलिए कहीं अधिक चिंताजनक है, क्योंकि नीति आयोग ने जन्म के समय के आंकड़ों के आधार पर अपनी रपट तैयार की है। इसका मतलब है कि गुपचुप तौर पर भ्रूण परीक्षण कराए जा रहे हैैं और कन्या भ्रूण की हत्या की जा रही है। हालांकि कन्या भ्रूण की हत्या रोकने के लिए तमाम उपाय किए गए हैैं, लेकिन हमारे समाज के एक बड़े हिस्से में बेटियों के मुकाबले बेटे की चाह अजन्मी कन्याओं पर बहुत भारी पड़ रही है।

भारतीय समाज में बेटों की चाह नई नहीं है, लेकिन अगर वह इस स्तर पर पहुंच गई है कि कन्या भ्रूण की पहचान करके उसे गर्भ में ही मार दिया जा रहा है तो यह किसी कलंक से कम नहीं। केवल सरकारी तंत्र की सख्ती और सक्रियता से इस कलंक से मुक्ति मिलने वाली नहीं है। कन्याओं को पैदा होने के पहले ही मार देने का सिलसिला तब थमेगा जब समाज यह समझने के लिए तैयार होगा कि बेटे की चाह में बेटियों को पैदा न होने देना मानवता और साथ ही प्रकृति से खिलवाड़ है। बेहतर हो कि नीति-नियंताओं के साथ समाज का नेतृत्व करने वाले लोग उन कारणों की तह तक पहुंचें जिनके चलते 21वीं सदी के इस युग में भी बेटे-बेटियों में इतना घातक भेद किया जा रहा है। जरूरी केवल यह नहीं है कि इन कारणों की पहचान की जाए, बल्कि यह भी है कि उनका निवारण किया जाए। यह तब होगा जब लोगों की दकियानूसी सोच को बदलने के साथ सामाजिक माहौल को दुरुस्त किया जाएगा।

अगर हमारा सामाजिक माहौल लड़कियों के प्रति अनुकूल नहीं बन पा रहा तो इसके लिए हर कोई दोषी है। इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती कि लड़कियों को बोझ समझने की मानसिकता एक खतरनाक रूप ले ले। इस मानसिकता की भयावहता इससे प्रकट होती है कि जिस गुजरात में पहले प्रति एक हजार लड़कों पर 907 लड़कियां पैदा होती थीं वहां अब यह आंकड़ा गिरकर 854 लड़कियों तक ही रह गया है। ऐसी स्थिति कई अन्य राज्यों की है जहां प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या आठ-नौ सौ के बीच है। साफ है कि इन राज्यों में केवल तकनीक का ही दुरुपयोग नहीं हो रहा है, बल्कि मेडिकल पेशे की गरिमा के खिलाफ भी काम हो रहा है। बच्चों के जन्म के समय ही लिंग अनुपात की खराब स्थिति यही बताती है कि बीते 70 सालों में समाज को बेहतर बनाने पर कितना कम ध्यान दिया गया है। नीति आयोग की यह रपट न तो राज्यों को स्वस्थ बताती है और न ही भारत को प्रगतिशील।

[ मुख्य संपादकीय ]