Editorial: नीति आयोग ने उजागर किया स्वास्थ्य ढांचे का सच, यूपी पहुंचा नीचे पायदान पर
नीति आयोग की ओर से जारी स्वास्थ्य सूचकांक पर केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के नीति-नियंताओं को भी चेत जाना चाहिए।
नीति आयोग की ओर से जारी स्वास्थ्य सूचकांक पर केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के नीति-नियंताओं को भी चेत जाना चाहिए। इसलिए और भी, क्योंकि बड़ी आबादी वाले राज्यों में केरल को छोड़कर किसी के भी अंक 70 से अधिक नहीं। केरल सौ में 80 अंक लेकर पहले स्थान पर है तो पंजाब करीब 65 अंक के साथ दूसरे पायदान पर। इस सूचकांक में कहीं अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों ने जिस तरह 50 से भी कम अंक हासिल किए उससे यह साफ है कि वहां स्वास्थ्य सुविधाएं संतोषजनक नहीं हैं। चिंता की बात यह है कि ज्यादातर राज्यों के अंक 40-50 के आसपास ही हैैं। सेहत के विभिन्न पहलुओं के आधार पर तैयार इस सूचकांक का विवरण सामने आने के बाद फिसड्डी राज्यों को अपने स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने के लिए कमर कसनी ही होगी। नि:संदेह यह काम उन राज्यों को भी करना होगा जो कुछ बेहतर स्थिति में दिख रहे हैैं, क्योंकि उनकी प्रगति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। अगर केरल स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने का काम उल्लेखनीय तरीके से कर सकता है तो अन्य राज्य क्यों नहीं कर सकते? केंद्र सरकार को केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं करनी चाहिए कि वह इसी सूचकांक के आधार पर राज्यों को अनुदान देगी। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य अपने स्वास्थ्य तंत्र को सुधारने को लेकर आवश्यक प्रतिबद्धता दिखाएं। यह इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि इस बार के आम बजट में जिस स्वास्थ्य बीमा योजना को बाजी पलटने वाला बताया जा रहा है वह ऐसी तभी साबित होगी जब देश का स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होगा। अभी तो स्थिति चिंताजनक ही अधिक है।
फिलहाल अपने देश में प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर का भी औसत नहीं है। ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों के साथ सरकारी एवं गैर सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की उपलब्धता और अधिक दयनीय है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि एमबीबीएस करके निकले युवा डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए ही तैयार नहीं। कई राज्यों ने इसके लिए प्रोत्साहन योजनाएं चला रखी हैैं, लेकिन वे कारगर साबित नहीं हो रही हैैं। एक समस्या यह भी है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के साथ अन्य सरकारी अस्पतालों पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है। आम आदमी के लिए निजी क्षेत्र के अस्पताल महंगे ही नहीं हैं, नियमन और निगरानी के अभाव में वे बेलगाम भी हैैं। इस सबके अतिरिक्त सरकार को इससे भी परिचित होना चाहिए कि भारत उन देशों में जहां आम लोग उपचार कराने के फेर में कर्जदार हो जा रहे हैैं। कारगर स्वास्थ्य तंत्र का अभाव केवल संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में ही बाधक नहीं है। उसके कारण ही देश की उत्पादकता भी नहीं बढ़ पा रही है। ऐसे में नीति आयोग को केवल इससे संतुष्ट नहीं होना चाहिए कि भारत राज्यों के स्तर पर स्वास्थ्य सूचकांक तैयार करने वाला पहला देश बन गया है। उसका लक्ष्य ऐसी प्रभावी रीति-नीति बनाना भी होना चाहिए जिससे देश का स्वास्थ्य ढांचा तेजी के साथ सुधरे और वह आम लोगों की सेहत संबंधी जरूरतों को पूरा भी करे।
[ मुख्य संपादकीय ]