अगले दस दिनों में 2600 श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाने की तैयारी यही बताती है कि अभी एक बड़ी संख्या में कामगार अपने घरों को लौटना चाह रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार इन ट्रेनों के जरिये करीब 36 लाख कामगारों को उनके घरों तक पहुंचाया जाएगा। उम्मीद है कि अगले दस दिनों में श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में कामगारों की भीड़ खत्म हो जाएगी, लेकिन यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि कारोबारी गतिविधियां तेज होती हैं या नहीं? यदि कामगारों को गांव लौटने से रोकना है तो आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों को गति देने के अलावा और कोई उपाय नहीं। इस मामले में केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों को भी सक्रियता दिखानी होगी। 

राज्य सरकारों को खास तौर पर कामगारों को यह भरोसा भी दिलाना होगा कि उनकी रोजी-रोटी के लिए उपजा संकट खत्म होने वाला है और उन्हें अनिश्चित भविष्य की चिंता के चलते गांव लौटने की जरूरत नहीं। कामगारों को भरोसे में लेने का काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि ऐसी भी स्थिति बन सकती है कि जब कल-कारखानों में काम शुरू हो तो उनकी कमी महसूस की जाए। चूंकि इस कमी के आसार दिखने लगे हैं इसलिए कामगारों की शहर वापसी के लिए नए सिरे से जतन करने पड़ सकते हैं।

उचित यह होगा कि रेलवे पूरी क्षमता से ट्रेनें चलाने की तैयारी करे। नि:संदेह इस मामले में उसे राज्यों का सहयोग चाहिए होगा। आखिर जब रेलवे राज्यों के भीतर ट्रेनें चलाने के लिए तैयार है तो राज्य सरकारें आगे क्यों नहीं आतीं? यह समझने में और देर नहीं की जानी चाहिए कि कोरोना संक्रमण से उपजे संकट ने जो कठिन हालात पैदा कर दिए हैं उनका समाधान कारोबारी गतिविधियों को बल देकर ही किया जा सकता है। कारोबारी गतिविधियां तभी आगे बढ़ेंगी जब आवाजाही को प्रोत्साहित किया जाएगा।

आवाजाही के दौरान शारीरिक दूरी के पालन को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतना समय की मांग है और उसे पूरा भी किया जाना चाहिए, लेकिन यह ठीक नहीं कि जब केंद्र सरकार ट्रेनों की संख्या बढ़ाने के साथ ही हवाई यात्रा शुरू करने जा रही है तब राज्य सरकारें आवाजाही को सीमित रखने का काम कर रही हैं। इससे कारोबार को बढ़ावा देना कठिन हो रहा है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक से दूसरे राज्य में बसों के संचालन का काम सही तरह से नहीं हो रहा है। इसी तरह राज्य के भीतर भी बस सेवाएं रफ्तार पकड़ती नहीं दिख रही हैं। यदि ट्रेनों के संचालन के साथ ही श्रमिक स्पेशल बसें चला दी जातीं तो शायद रेलवे का बोझ भी कम होता और कामगारों को भी गांव-घर जाने में सहूलियत होती।