भीड़ की हिंसा के खिलाफ कोई प्रभावी कानून बनाने की तैयारी समय की मांग है। ऐसा महज इसलिए आवश्यक नहीं है कि हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जरूरत जताई है। इसकी आवश्यकता इसलिए अधिक है, क्योंकि भीड़ की हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं। बीते कुछ समय से तो आए दिन ऐसे समाचार सामने आ रहे हैं जिनमें लोगों का उग्र समूह किसी संदिग्ध अथवा निर्दोष-निहत्थे व्यक्ति से अपने हिसाब से निपट रहा होता है। इस तरह की घटनाओं में लोगों की जान तक जा रही है।

विगत दिवस ही अलवर में गो-तस्कर होने के शक में एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इसके पहले भी देश के अनेक हिस्सों से ऐसी अनेक घटनाएं घट चुकी हैं जिनमें किसी को बच्चा चोर होने के संदेह में पीट-पीट कर मार दिया गया अथवा अन्य कारणों से। ऐसी घटनाएं कानून एवं व्यवस्था का उपहास उड़ाने वाली और भारतीय समाज के चेहरे को विकृत रूप में पेश करने वाली हैं। ये घटनाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी करा रही हैं।

यह सहज-सामान्य नहीं कि आज जब दुनिया में भारत की चर्चा मुख्यत: सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश के रूप में हो रही है तब भीड़ की हिंसा के मामले विश्व समुदाय को हैरान-परेशान कर रहे हैं। भीड़ की हिंसा के मामलों पर यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जा सकती कि भारत में इस तरह की घटनाएं होती ही रहती हैं। यह सही है कि भीड़ की हिंसा के मामले नए नहीं हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन पर विराम लगने के बजाय उनमें और तेजी दिखाई दे। दुर्भाग्य से वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है।

भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून बनाने के मामले में एक तर्क यह है कि किसी नए कानून की आवश्यकता नहीं है। पहले से ही ऐसे कानून उपलब्ध हैं जिनके जरिये भीड़ के हिंसक व्यवहार वाले मामलों से निपटा जा सकता है। यह तर्क निराधार नहीं, लेकिन कोई नया कानून बनाने का काम इसलिए किया जाना चाहिए ताकि समाज को यह संदेश दिया जा सके कि सभ्य समाज को शर्मिंदा करने वाली इस तरह की घटनाओं को सहन नहीं किया जाएगा। चूंकि भीड़ की हिंसा के मामले खुद न्याय करने की मनोवृत्ति का परिचायक हैं इसलिए केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं। आम जनता को इसके लिए सचेत करने की भी जरूरत है कि कोई भी किसी को दंड देने का काम अपने हाथ में नहीं ले सकता और जो भी ऐसा करेगा वह कठोर दंड का भागीदार बनेगा।

बेहतर यह होगा कि हाल में भीड़ की हिंसा के जो भी मामले सामने आए हैं उनमें दोषी लोगों को दंडित करने का काम शीघ्रता से किया जाए। स्पष्ट है कि इसके लिए पुलिस के साथ-साथ न्याय प्रक्रिया को भी तत्परता का परिचय देना होगा। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में कानून तो कड़े कर दिए गए, लेकिन दोषी लोगों को आनन-फानन दंडित करने का सिलसिला कायम नहीं किया जा सका। केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि भीड़ की हिंसा के मामले में ऐसा न होने पाए।