मुंबई में मेट्रो के कारशेड निर्माण के लिए पेड़ों को काटने का विरोध आखिरकार सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। उसने मुंबई की आरे कॉलोनी में पेड़ काटने पर रोक लगाने का आदेश देने के साथ ही मामले को पर्यावरण पीठ के समक्ष भेज दिया। इस पीठ का फैसला जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जितने पड़े काटने जरूरी थे उतने काटे जा चुके हैैं। बंबई हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह काम आनन-फानन में शायद इसीलिए हुआ, क्योंकि मुंबई मेट्रो कॉरपोरेशन यह जान रहा था कि हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी जाएगी। जो भी हो, यह पहली बार नहीं जब पर्यावरण प्रेमियों एवं सामाजिक संगठनों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया हो और अपनी लड़ाई अदालत तक ले गए हों। कई बार तो सड़क या फिर रेल मार्ग के निर्माण के लिए पांच-दस वृक्षों को भी काटने का विरोध किया गया है। इस विरोध के चलते विकास योजनाओं का काम रुका भी है।

आज जब जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है और जल-जंगल-जमीन को संरक्षित करने की जरूरत कहीं अधिक बढ़ गई है तब यह सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि शहरी इलाकों में वृक्षों को काटने की नौबत न आए, लेकिन इसी के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विकास जमीन पर ही होगा और जब ऐसा होगा तो कहीं न कहीं पेड़ काटने ही पड़ेंगे। वास्तव में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति तभी होगी जब बीच का रास्ता तलाशा जाएगा। पहले तो यह देखा जाए कि कम से कम पेड़ काटने पड़ें, फिर यह सुनिश्चित किया जाए कि जितने पड़े काटे जाएं उससे कहीं अधिक न केवल लगाएं जाएं, बल्कि उनकी देखभाल भी की जाए। अगर यह जिद पकड़ी जाएगी कि चार पेड़ भी न कटने पाएं, भले ही विकास के काम न हों तो इससे बात नहीं बनेगी।

यह ठीक नहीं कि विकास की कई योजनाएं पर्यावरण संबंधी सवालों से दो-चार होने के कारण अटकी पड़ी हुई हैैं। इनमें से कुछ की तो लागत भी बढ़ गई है। यह ठीक नहीं। निश्चित रूप से विकास की चिंता करते समय पर्यावरण की भी चिंता करनी होगी, लेकिन केवल तभी नहीं जब किसी योजना-परियोजना की राह में कुछ वृक्ष आ रहे हों। क्या यह अजीब नहीं कि पर्यावरण की तमाम चिंताओं के बीच पंजाब और हरियाणा में पराली एक बार फिर जलाई जा रही है? क्या यह पर्यावरण को जानबूझकर जहरीला बनाने वाला काम नहीं? बेहतर हो कि पर्यावरण के साथ विकास की भी समान चिंता की जाए और जंगल बचाने-बढ़ाने पर कहीं ज्यादा ध्यान दिया जाए।