प्रदेश पर बदनुमा दाग बन गए जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में संदिग्ध भूमिका के आरोपी पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के खिलाफ सरकार की कार्रवाई पूरी तरह वाजिब और आवश्यक है। कोई भी व्यवस्था अनुशासन, समर्पण और प्रतिबद्धता के बिना नहीं चल सकती। जिन अधिकारियों पर कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी थी, अगर वे संकट के समय किसी एक पक्ष में खड़े दिखें या जिम्मेदारी से भागने लगें तो आम जनता कहां जाए और क्या करे? कुछ ऐसी ही स्थिति प्रदेशभर में हो रहे उपद्रव के दौरान जनसामान्य की हो गई थी। मुट्ठी भर लोगों की भीड़ पूरे तंत्र पर हावी थी। वह जो चाहती करती। रेलवे स्टेशन फूंक दिए गए, सरकारी दफ्तरों, भवनों व संपत्ति को जानबूझकर निशाना बनाया गया। निजी संपत्ति, दुकानें, शोरूम और मकान तो कुछ जगह पूरी तरह दंगाइयों के रहम पर निर्भर हो गए थे। हौसले इतने बुलंद थे कि जगह-जगह पुलिस थाने और चौकियों पर लोगों ने हमला कर दिया, आग लगा दी और कई जगह तो हथियार तक लूट लिये। इससे ज्यादा दयनीय स्थिति क्या होगी कि उपद्रवियों का मुकाबला करने और उन्हें रोकने की कोशिश करने के बजाय पुलिस वाले खुद भाग खड़े हुए। कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि उनमें हालात पर काबू पाने की इच्छा हो। वे पूरी तरह समर्पण नहीं, बल्कि मैदान छोड़कर भागने की मुद्रा में थे। ऐसी स्थिति में अगर सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई करती है तो गलत नहीं है। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि इसमें कोई जल्दबाजी दिखाई गई हो या कोई आग्र्रह-दुराग्रह हो। प्रदेश सरकार की इस बात के लिए सराहना करनी होगी कि उसने आरोपों-प्रत्यारोपों पर ध्यान नहीं दिया। यह भी नहीं सोचा कि उसके बारे में क्या धारणा बन रही है? लोगों के दबाव में आने के बजाय उसने समिति बनाकर विस्तृत जांच कराई और उसकी रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई कर रही है। भेदभाव के आरोप तो हिंसा थमने के बाद ही लगने लगे थे। ताज्जुब की बात है कि सबसे ज्यादा शोर उन्हीं लोगों ने मचाया जो आरोपों के घेरे में थे। जिनकी वजह से माहौल बिगड़ा और प्रदेश कई साल पीछे चला गया। प्रकाश समिति की रिपोर्ट पर उठ रहे सवालों में भी कोई दम नहीं है। कुछ लोग यह कह रहे हैं कि पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों पर ही नहींर्, ंहसा के लिए जिम्मेदार राजनीतिक लोगों पर भी कार्रवाई हो। निश्चित रूप से इस पर सरकार को ध्यान देना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : हरियाणा ]