पारे की उछाल के साथ ही उत्तराखंड में पेयजल संकट सिर उठाने लगा है। चाहे पर्वतीय इलाके हों अथवा मैदानी क्षेत्र, सभी जगह पेयजल किल्लत की शिकायतें सामने आने लगी हैं। उस पर तुर्रा यह कि शिकायतों के समाधान की दिशा में बेपरवाही बरती जा रही है। मंगलवार को पेयजल मंत्री ने जब देहरादून में जल संस्थान के कस्टमर केयर सेंटर का निरीक्षण किया तो कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आई। इस दौरान शिकायत आई कि एक क्षेत्र में जलापूर्ति न होने के बावजूद अभिलेखों में इसका समाधान दर्शा दिया गया। अन्य मामलों में विभागीय लापरवाही की बातें सामने आईं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब राजधानी में ही सिस्टम का यह हाल है तो सुदूरवर्ती क्षेत्रों की स्थिति क्या होगी। इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। समग्र आलोक में देखें तो राज्य गठन के 17 साल बाद भी उत्तराखंड में पेयजल की समस्या से पार नहीं पाया जा सका है। सरकारी आंकड़ों पर ही नजर दौड़ाएं तो प्रदेश की 17000 बस्तियों में अभी भी आंशिक रूप से ही जलापूर्ति हो रही है। इनमें सर्वाधिक संख्या पर्वतीय इलाकों की बस्तियों की है, जहां गर्मियों में लोगों का अधिकांश वक्त हलक तर करने को पानी जुटाने में जाया होता है। वहीं, मैदानी क्षेत्रों में भूजल का स्तर नीचे गिरने से दिक्कतें बढ़ी हैं। हालांकि, शहरी क्षेत्रों में वैकल्पिक व्यवस्था के तहत टैंकरों से जलापूर्ति की जाती है, लेकिन पहाड़ के गांवों में ऐसा करना असंभव है।

ऐसे में जरूरी है कि गर्मी का मौसम शुरू होने से पहले ही पेयजल संकट से निबटने को ठोस एवं प्रभावी कदम उठाए जाएं। यह बात अलग है कि हर साल ही इस सिलसिले में कंटीजेंसी प्लान तैयार होता है, लेकिन इसका लाभ कितना मिल पाता है यह किसी से छिपा नहीं है। ठीक है कि एक साथ सभी क्षेत्रों की पेयजल समस्या का निदान नहीं हो सकता, लेकिन यदि हर साल ही दो-तीन सौ गांवों पर फोकस किया जाए तो काफी हद तक पेयजल किल्लत से निजात मिल सकती है। साथ ही सिस्टम को ऐसा बनाना होगा, जिसमें जनता की शिकायतों पर सुनवाई तुरंत हो। कोई भी शिकायत सामने आने पर इसके समाधान को गंभीरता से प्रयास करने के साथ ही जनता को सही जानकारियां भी उपलब्ध कराई जाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रदेश सरकार इस दिशा में प्रभावी कदम उठाएगी। साथ ही पेयजल से जुड़े महकमों के पेच भी कसेगी। यही नहीं, जनता को भी चाहिए कि समस्या से निबटने के लिए सरकार के साथ कदम से कदम बढ़ाए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]