हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए की अदालत की ओर से सभी पांच आरोपितों को बरी किए जाने के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस मस्जिद में विस्फोट किसने किया? चूंकि अदालत ने यह पाया कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में नाकाम रहा इसलिए ऐसे सवाल भी उठेंगे कि क्या एनआइए ने अपना काम सही ढंग से नहीं किया? ऐसे सवालों के बीच इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 11 वर्ष पुराने इस मामले की जांच में प्रारंभ में स्थानीय पुलिस ने हरकतुल जिहाद नामक आतंकी संगठन को विस्फोट के लिए जिम्मेदार माना और कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया, लेकिन इसके बाद जब मामला सीबीआइ के पास आया तो उसने हिंदू संगठनों के कुछ सदस्यों को अपनी गिरफ्त में लिया। इसी के साथ तत्कालीन सरकार की ओर से भगवा और हिंदू आतंकवाद का जुमला उछाल दिया गया। आज भले ही विपक्ष में बैठी कांग्रेस इससे इन्कार कर रही हो कि उसका इस जुमले से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सच यही है कि उसके नेताओं ने ही इस जुमले को उछाला था। क्या यह महज एक दुर्योग है कि आतंक के जिन मामलों और खासकर मालेगांव और अजमेर शरीफ दरगाह में विस्फोट को हिंदू आंतकवाद के उभार के तौर पर प्रचारित किया गया उनमें आरोपितों के खिलाफ लगे आरोप साबित नहीं हो सके? पहले मालेगांव एवं अजमेर मामले और अब मक्का मस्जिद मामले में आरोपित जिस तरह बरी हो गए उससे तो यही लगता है कि हिंदू आतंकवाद के जुमले को राजनीतिक फायदे के लिए गढ़ा गया और इस क्रम में जांच एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल भी किया गया।

इस पर हैरत नहीं कि एनआइए अदालत के फैसले के बाद भाजपा भगवा आतंकवाद के जुमले को लेकर कांग्रेस पर हमलावर है तो कांग्रेसी नेता इस जांच एजेंसी पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन तथ्य यह है कि आतंकवाद के मामलों में आरोपितों को सजा दिलाने के मामले में जांच एजेंसियों को पहले भी नाकामी मिली है। जर्मन बेकरी और साबरमती एक्सप्रेस में विस्फोट के आरोपित बरी हो चुके हैं। विडंबना यह है कि राजनीतिक दल ऐसे मामलों में अदालती फैसले की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। कभी वे कहते हैं कि आखिरकार गलत तरीके से फंसाए गए लोगों को न्याय मिला और कभी वे सरकार एवं जांच एजेंसियों की नीयत पर सवाल उठाते हैं। बेहतर हो कि वे अपनी सुविधा अनुसार अदालती फैसलों की व्याख्या करना बंद करें और यह देखें कि जांच एजेंसियां और अधिक सक्षम कैसे बनें? यह ठीक नहीं कि अपने देश में आतंकी घटनाओं के आरोपितों का सूबूतों के अभाव में बरी होने का सिलसिला कायम है। इस सिलसिले पर लगाम लगाने की जरूरत है, क्योंकि आतंकी घटनाओं में जान-माल का नुकसान काल्पनिक नहीं होता। यह एक तथ्य है कि मक्का मस्जिद विस्फोट में नौ लोगों की मौत हुई थी? क्या इनके परिजनों को न्याय मिलेगा? यह कहना कठिन है कि एनआइए के हाईकोर्ट जाने पर उसे क्या हासिल होता है, लेकिन यह ठीक नहीं कि आतंकी घटनाओं के मामले में न्याय कम और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति अधिक देखने को मिले।

[ मुख्य संपादकीय ]