कुछ समय पहले तक इसके आसार कम ही थे कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग इतना ज्यादा तूल पकड़ेगी कि भाजपा और तेलुगु देसम पार्टी की दोस्ती अलगाव में बदल जाएगी, लेकिन ऐसा ही हुआ। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि मोदी सरकार से अलग होने के बाद तेलुगु देसम राजग से भी बाहर जाने का फैसला करती है या नहीं? जो भी हो, इस अलगाव का कारण आर्थिक कम राजनीतिक ज्यादा नजर आता है। इसमें दोराय नहीं कि अलग राज्य तेलंगाना के गठन और विकसित शहर एवं राजधानी हैदराबाद के उसके हिस्से में जाने के बाद आंध्र को नई राजधानी के निर्माण और साथ ही विकास संबंधी योजनाओं के लिए केंद्र सरकार से विशेष आर्थिक मदद की दरकार थी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने आंध्र को यथासंभव पर्याप्त धन देने से इन्कार नहीं किया। जहां मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू आंध्र के लिए विशेष राज्य का दर्जा चाह रहे थे वहीं केंद्र सरकार का तर्क था कि विशेष पैकेज तो दिया जा सकता है, लेकिन विशेष राज्य का दर्जा देना संभव नहीं। इस दलील को निराधार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वित्त आयोग के अनुसार एक तो यह दर्जा छोटे और विकास से वंचित राज्यों को ही दिया जा सकता है और दूसरे अगर आंध्र की बात मान ली गई तो फिर बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य भी ऐसी ही मांग करेंगे।

समझना कठिन है कि जब केंद्र सरकार आंध्र प्रदेश सरकार को विशेष पैकेज के तहत यथासंभव मदद देने की हामी भर रही थी और नई राजधानी अमरावती के निर्माण समेत अन्य परियोजनाओं के लिए धन जारी भी करती जा रही थी तो फिर चंद्रबाबू नायडू ने विशेष राज्य के दर्जे की अपनी मांग को एक राजनीतिक रंग क्यों दिया? हैरत नहीं कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया हो ताकि खुद को इस आधार पर राजनीतिक तौर पर मजबूत कर सकें कि केंद्र सरकार आंध्र के साथ अन्याय कर रही है। ध्यान रहे कि चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक विरोधी जगन मोहन रेड्डी इसे मुद्दा बनाए हुए थे कि आंध्र के निर्माण में केंद्र सरकार का क्या और कितना योगदान है? एक आर्थिक मामले में किस तरह राजनीति हावी होती चली गई, इसका पता इससे भी चलता है कि राहुल गांधी ने तेलुगु देसम पाटी के नेताओं के बीच खड़े होकर उनकी मांगों का समर्थन करने में देर नहीं की। यह बात और है कि आज आंध्र प्रदेश की मौजूदा स्थिति के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी जवाबदेह है। उसने 2014 के आम चुनाव के पहले जिस तरह आनन-फानन आंध्र का बंटवारा किया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। राजनीतिक दलों की ओर से आर्थिक मसलों को राजनीतिक रंग देना कोई नई बात नहीं, लेकिन चंद्रबाबू नायडू से यह अपेक्षित नहीं था कि वह ऐसा करने के साथ विशेष राज्य की अपनी मांग को एक भावनात्मक मसला भी बनाएंगे। वह इसी दिशा में बढ़ते दिख रहे हैं। हो सकता है कि इससे उन्हें फौरी तौर पर राजनीतिक लाभ हो, लेकिन यह परिपक्व राजनीति का उदाहरण नहीं है। अच्छा होता कि वह थोड़ी और राजनीतिक परिपक्वता दिखाते।

[ मुख्य संपादकीय ]