शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के पहले भारतीय प्रधानमंत्री के चीन जाने की घोषणा इस बात का परिचायक है कि दोनों देश संबंधों में सुधार के लिए इच्छुक हैं। वैसे तो भारतीय प्रधानमंत्री को आगामी जून में इस संगठन की बैठक में हिस्सा लेने के लिए चीन जाना था, लेकिन अब वह इसी माह के अंत में दो दिन के लिए वहां पहुंच रहे हैं। इस दौरान उनका एकमात्र एजेंडा चीनी राष्ट्रपति के साथ मुलाकात कर मतभेदों को दूर करना और सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा। अच्छी बात यह है कि चीन यह प्रतिबद्धता जता रहा है कि वह भारतीय प्रधानमंत्री की इस यात्र को सफल बनाने के हरसंभव प्रयास करेगा। यह तो दोनों देशों के नेताओं की बैठक के बाद ही पता चलेगा कि संबंध सुधार की पहल कितनी आगे बढ़ी, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि चीन ने भारतीय प्रधानमंत्री को तय कार्यक्रम के पहले अपने देश बुलाना बेहतर समझा। भारत और चीन के रिश्ते में खटास किसी से छिपी नहीं है। पिछले वर्ष डोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं जिस तरह आमने-सामने आ खड़ी हुई थीं उससे पूरी दुनिया में इन दो एशियाई देशों के बीच सैन्य टकराव की आशंका फैल गई थी।

यह अच्छा हुआ कि पहले चीन ने डोकलाम में अपने कदम पीछे खींच कर भारत की चिंताओं को समझने के संकेत दिए और फिर भारत ने तिब्बत धर्मगुरु दलाई लामा के भारत आगमन के सिलसिले में आयोजित समारोहों में अपनी भागीदारी सीमित करके यह संदेश दिया कि वह भी चीन की चिंताओं की परवाह करता है। यह भी स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच कई ऐसे मसले हैं जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर सुलझाए जाने की आवश्यकता है। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि दशकों पुराना सीमा विवाद जहां का तहां अटका हुआ है और उसे सुलझाए बगैर चीन पाकिस्तान के कब्जे वाले भारतीय भूभाग से आर्थिक गलियारा बनाने में जुट गया है। यह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है। ऐसा लगता है कि अब चीन को यह अहसास हो गया है कि वह इस गलियारे के मामले में भारत की आपत्तियों का समाधान किए बगैर आगे नहीं बढ़ सकता। अच्छा यह होगा कि वह इस बात को भी समङो कि वह भारत की प्रगति की राह का रोड़ा बनकर संबंधों में सुधार नहीं ला सकता। बात चाहे नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता में अड़ंगा लगाने की हो अथवा भारत के लिए खतरा बने उन आतंकी सरगनाओं को कवच देने की हो जो पाकिस्तान में संरक्षित हैं, चीन को यह समझने की जरूरत है कि वह भारत के प्रति एक तरह से शत्रुतापूर्ण भाव को ही प्रकट कर रहा है। चीनी नेतृत्व को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि आज भारत को चीन की जितनी जरूरत है उससे कहीं अधिक जरूरत उसे भारत की है और इसकी पूर्ति तभी हो सकती है जब दोनों देश एक-दूसरे की वाजिब चिंताओं को न केवल समङोंगे, बल्कि उनका समाधान भी करेंगे। चीन को यह समझ आ जाना चाहिए कि वह भारत से उस तरह से व्यवहार नहीं कर सकता जैसे कि वह अपने कई छोटे पड़ोसी देशों के साथ करने में लगा हुआ है।

[ मुख्य संपादकीय ]