सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव के खारिज होने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को यह समझ आ जाए तो अच्छा कि इस मामले को तूल देने से उसे बदनामी के सिवाय और कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि कांग्रेस के वकील सांसदों और चंद स्वतंत्र वकीलों के गुट को छोड़ दें तो अन्य सभी विधि विशेषज्ञ महाभियोग को बदनीयत से लैस बताने के साथ ही न्यायपालिका की गरिमा गिराने वाला कह रहे हैं। अगर फली एस नरीमन, सोली सोराबजी, राम जेठमलानी, हरीश साल्वे, केके वेणुगोपालन, के पारासरन, जैसे कानूनी जानकार इस नतीजे पर पहुंचे कि अधकचरा महाभियोग लाकर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई गई तो इन सबको गलत अथवा सरकार समर्थक नहीं करार दिया जा सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इनमें कई उस समय अटार्नी जनरल रहे हैं जब कांग्रेस सत्ता में थी। कांग्रेस नेतृत्व इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि उसके कई नेता एवं विधि विशेषज्ञ भी महाभियोग से सहमत नहीं। सुप्रीम कोर्ट के कुछ पूर्व न्यायाधीशों का भी यह कहना है कि मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के ठोस आधार नहीं थे। ऐसे में यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष अपने वकील सांसदों के साथ-साथ वकीलों के उस गुट के बहकावे में आ गए जो सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रति एक तरह के बैर भाव से ग्रस्त है और जो किस्म-किस्म की जनहित याचिकाएं दायर करने में माहिर है।

यह एक तथ्य है कि वैचारिक तौर पर सरकार के अंध विरोध से ग्रस्त वकीलों का एक गुट फालतू की जनहित याचिकाएं थोक भाव में दायर करता रहा है। यह गुट सरकार के साथ-साथ मुख्य न्यायाधीश से भी खुन्नस खाता है, इसका प्रमाण यह है कि उनकी पीठ का बहिष्कार करने की धमकी देने के साथ-साथ अदालती कार्यवाही के दौरान अभद्रता करने के प्रसंग किसी से छिपे नहीं। इसमें संदेह नहीं कि वकीलों के इस गुट को चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की उस प्रेस कांफ्रेंस से और बल मिला जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को लेकर सवाल उठाए थे। यदि सुप्रीम कोर्ट खास एजेंडे वाली जनहित याचिकाएं दायर करने वाले वकीलों के गुट को केवल चेताने तक सीमित नहीं रहता तो शायद जो स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था। इसका कोई मतलब नहीं कि न्यायपालिका को नीचा दिखाने और शासन को अस्थिर करने के इरादे से जनहित याचिकाएं दायर करने वालों को सिर्फ हिदायत देकर छोड़ दिया जाए। आज जरूरी केवल यह नहीं है कि जनहित के बहाने अपना स्वार्थ साधने वालों को बेनकाब किया जाए, बल्कि यह भी है कि न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया का प्रभावी विकल्प भी खोजा जाए। अब तक का अनुभव यही बताता है कि महाभियोग इतनी जटिल प्रक्रिया है कि उससे कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि राज्यसभा सभापति के फैसले के बाद संकीर्ण राजनीतिक इरादे से महाभियोग लाने वाले हतोत्साहित होंगे, लेकिन अगर कभी किसी न्यायाधीश का आचरण ऐसा हो कि उसे हटाना जरूरी हो जाए तो फिर देश के पास कोई ठोस उपाय होने ही चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]