पाकिस्तान के साथ सरकार के स्तर पर सीधी बातचीत के बजाय दोनों देशों के कुछ चुनिंदा लोगों के बीच वार्ता का अनौपचारिक सिलसिला कायम होने को लेकर तनिक भी उत्साहित नहीं हुआ जा सकता। इस तरह की बातचीत को भले ही अनौपचारिक कूटनीतिक पहल के तौर पर परिभाषित किया जाए, लेकिन अब तक का अनुभव यही कहता है कि संवाद के इस सिलसिले से कुछ हासिल नहीं होता। इस बार भी ऐसा ही कुछ हो तो हैरत नहीं। इसके बावजूद इस तरह की बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई हर्ज नहीं, क्योंकि इससे दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे की चिंताओं और अपेक्षाओं से अवगत हो जाती हैं। नि:संदेह इस तरह की अनौपचारिक वार्ता औपचारिक वार्ता का आधार भी बन सकती है, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा हालात को देखते हुए इसके आसार न के बराबर हैं। पाकिस्तान में सत्तारूढ़ दल के मुखिया नवाज शरीफ सेना और सुप्रीम कोर्ट की जुगलबंदी के चलते शासन व्यवस्था से बाहर हैं और जब आम चुनाव करीब आ गए हैं तब उनका राजनीतिक भविष्य बुरी तरह डांवाडोल है। नवाज शरीफ ने अपने स्थान पर जिन शाहिद खाकान अब्बासी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाया है वह राजनीतिक रूप से बेहद कमजोर हैं। खुद अपने लोगों की निगाह में वह ऐसे कामचलाऊ प्रधानमंत्री हैं जो तनिक भी प्रभाव नहीं छोड़ सके हैं। आखिर जब राजनीतिक तौर पर ताकतवर नवाज शरीफ के जमाने में सेना पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान पर हावी थी और इसी कारण पठानकोट हमले की जांच भटक गई तब फिर यह उम्मीद कैसे की जाए कि उनके कमजोर उत्तराधिकारी विदेश नीति के मामले में प्रभावी हो सकते हैं? यह भी ध्यान रहे कि नवाज शरीफ के इस्तीफे के बाद पाकिस्तान में सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा की अहमियत की कहीं अधिक बढ़ गई है। यह तथाकथित बाजवा सिद्धांत की चर्चा से भी जाहिर होता है।

पाकिस्तानी सेना बाजवा सिद्धांत की चाहे जैसी व्याख्या क्यों न करे, भारत के मामले में उसका रवैया जस का तस है। तमाम मुश्किलों से घिरने के बाद भी पाकिस्तानी सेना भारत से बदला लेने और सबक सिखाने की अपनी पुरानी नफरत भरी मानसिकता का परित्याग करती नहीं दिखती। सीमा के हालात इसकी गवाही भी देते हैं। यह किसी से छिपा नहीं कि सीमा पर संघर्ष विराम एक अर्से से उल्लंघन का पर्याय बना हुआ है। एक ऐसे समय जब पाकिस्तान नई सरकार का इंतजार कर रहा है तब उसके ऐसे लोगों से अनौपचारिक बातचीत का कोई खास महत्व कैसे हो सकता है जो सेना के रवैये में कोई बदलाव लाने में सक्षम न हों? यह संभव है कि पाकिस्तानी सेना ने ऐसे कोई संकेत दिए हों कि वह भारत के प्रति अपने शत्रुतापूर्ण रवैये को छोड़ने के लिए तैयार है, लेकिन जब तक इसके ठोस प्रमाण नहीं सामने आते तब तक पाकिस्तान से सावधान रहने में ही भलाई है। यह सही है कि नीमराना संवाद के तहत अनौपचारिक वार्ता के टूटे हुए क्रम को आगे बढ़ाने की अपेक्षा इस्लामाबाद ने जाहिर की थी, लेकिन इस वार्ता के बाद ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे भारत को एक और बार धोखा खाना पड़े।

[ मुख्य संपादकीय ]