छत्तीसगढ़ के बीजापुर में आठ नक्सलियों को मार गिराने में मिली सफलता इसलिए कहीं अधिक उल्लेखनीय है, क्योंकि इसके पहले पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में करीब 40 नक्सली ढेर कर दिए गए थे। इनमें दो तथाकथित इनामी डिवीजनल कमांडर भी थे। एक सप्ताह में करीब 50 नक्सलियों को मारा जाना यह बताता है कि पुलिस एवं सुरक्षा बलों ने नक्सली संगठनों पर अपना शिकंजा और कस दिया है। बीजापुर में नक्सलियों से हुई मुठभेड़ में खास बात यह रही कि यह छत्तीसगढ़ पुलिस और तेलंगाना की कमांडो फोर्स का साझा अभियान था। नक्सलियों पर लगाम लगाने के मामले यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस, उनकी कमांडो फोर्स और अर्धसैनिक बलों में हर स्तर पर तालमेल देखने को मिले। यह इसलिए अनिवार्य है, क्योंकि नक्सली एक राज्य में वारदात करने के बाद दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। जब तक संबंधित राज्यों की पुलिस में संवाद-संपर्क होता है और उनके बीच साझा रणनीति बनती है तब तक वे छिपने में सफल हो जाते हैं। सच तो यह है कि नक्सली संगठन इसीलिए पुलिस और सुरक्षा बलों को चकमा देने में सफल रहते हैं, क्योंकि जिन इलाकों में वे सक्रिय हैं वहां की सीमाएं कई राज्यों से मिलती हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सली इसीलिए अपेक्षाकृत मजबूत नजर आते हैं, क्योंकि उसकी सीमा नक्सली संगठनों की गतिविधियों से ग्रस्त आंध्र, तेलंगाना, झारखंड आदि से भी मिलती हैं।

इस पर हैरत नहीं कि बीजापुर में मारे गए नक्सलियों से बड़ी मात्र हथियार और विस्फोटक सामग्री मिली। हथियारों का ऐसा ही जखीरा गढ़चिरौली में मारे गए नक्सलियों से भी मिला था। अगर नक्सलियों के पास से एके-47 राइफल और राकेट लांचर तक मिल रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन तक हथियारों की आपूर्ति अभी भी आसानी से हो रही है। आतंरिक सुरक्षा के लिए यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि नक्सली संगठन आधुनिक हथियार आसानी के साथ हासिल करने में समर्थ बने रहें। इसकी तह तक जाने की सख्त जरूरत है कि नक्सलियों को आधुनिक हथियार और विस्फोटक कहां से मिल रहे हैं? बीजापुर और गढ़चिरौली में जो तमाम नक्सली मारे गए उनमें कई महिलाएं भी थीं। नक्सली संगठनों में हथियारबंद महिलाओं की भागीदारी बढ़ना कोई शुभ संकेत नहीं। नि:संदेह गढ़चिरौली और बीजापुर में मिली सफलता के बाद नक्सलियों के सफाए में लगे सुरक्षा बल अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, लेकिन सरकारों को यह देखना होगा कि अपने इतने अधिक साथियों को खोने के बाद नक्सली नए सिरे से अपनी ताकत जुटाने का काम न करने पाएं। अगर नक्सली इन मुठभेड़ों के बाद सरकारों और सुरक्षा बलों के खिलाफ माहौल बनाने में कामयाब रहते हैं तो इससे उन पर निर्णायक तौर पर लगाम लगाने में और देर हो सकती है, जबकि जरूरत इसकी है कि नक्सलवाद के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम किया जाए। इसके लिए खुफिया तंत्र को मजबूत करने के साथ ही पुलिस के बीच आपसी तालमेल बढ़ाना होगा। इसके अतिरिक्त सरकारों को उन लोगों तक अपनी पहुंच बढ़ाकर अपने भरोसे में भी लेना होगा जो नक्सलियों से हमदर्दी रखते हैं अथवा यह मानते हैं कि वे ही उनके हितैषी हैं।

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