सुप्रीम कोर्ट ने जज बीएच लोया की मौत के मामले की छानबीन विशेष जांच दल से कराने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए जिस तरह यह कहा कि इसका उद्देश्य न्यायाधीशों को बदनाम करना था उससे यह साफ हो गया कि छल-छद्म के सहारे देश को गुमराह करने की कोशिश एक अभियान में बदल गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल यह पाया कि यह याचिका शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई थी, बल्कि इस नतीजे पर भी पहुंचा कि वह आपराधिक अवमानना जैसी थी। खास बात यह है कि इस निष्कर्ष पर मामले की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के तीनों न्यायाधीश पहुंचे। वे इस पर भी एक मत हैं कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग हो रहा है। अच्छा होता कि वे केवल चिंता जताने तक ही सीमित नहीं रहते और ऐसे कुछ उपाय करते जिससे जनहित याचिकाओं की दुकानें चलाने वाले लोगों पर लगाम लगती। ध्यान रहे कि एक पूरी जमात खड़ी हो गई है जो बात-बात पर जनहित याचिकाएं दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ देश का भी समय जाया करती है। जज लोया की मौत के मामले में भी ऐसा किया गया।

सीबीआइ की विशेष अदालत के जज बीएच लोया की मौत दिसंबर 2014 में हुई थी। करीब तीन साल बाद यकायक एक अभियान छेड़ दिया गया कि उनकी मौत स्वाभाविक नहीं थी और उनका न तो सही तरह उपचार हुआ था और न ही उनके शव को उचित तरीके से ले जाया गया था। झूठ की यह दीवार हर दिन ऊंची की जाती रही। इसके लिए जज लोया के दिल के दौरे के वक्त उनके साथ रहे न्यायाधीशों से लेकर उनका उपचार करने वाले चिकित्सक तक को काल्पनिक साजिश का हिस्सा बताया गया। इसमें आसानी इसलिए हुई, क्योंकि जज लोया के निधन के बाद उनके कुछ परिजनों ने उनकी मौत को संदिग्ध बता दिया था। हालांकि बाद में बेटे ने यह स्पष्ट किया कि वे बयान भावावेश में दिए गए थे, लेकिन मौत के पीछे साजिश की खोज करने वाले चैन से नहीं बैठे। इन तत्वों ने बेटे के बयान को तो हाशिये पर डाला ही, महाराष्ट्र पुलिस की उस दौरान की छानबीन को भी खारिज कर दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया और इस दौरान ऐसा माहौल बनाया गया कि इस मामले में वैसे ही आदेश-निर्देश दिए जाने चाहिए जैसा कुछ वकील और नेता चाह रहे हैं। इस मामले में दाखिल याचिका की पैरवी करने वाले आरोपी और वकील के साथ जज की भी भूमिका खुद ही निभाने पर आमादा थे। इस पर हैरानी नहीं कि फैसला उनके मनमाफिक नहीं आया तो उन्हें काला दिन दिखाई देने लगा। हैरानी इस पर है कि कुछ राजनीतिक दल भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रुदन करने में लगे हुए हैं। इनमें भी कांग्रेस का रवैया सबसे विचित्र है। कल तक उसके नेता यह कहते नहीं थकते थे कि हम तो अदालती मामलों में टीका-टिप्पणी ही नहीं करते, लेकिन अब वे ठीक यही काम कर रहे हैं। क्या अब कांग्रेस ने शरारत भरी याचिकाओं की आड़ में राजनीति करने की ठानी है? जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग रोकना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]