यह चिंताजनक है कि छत्तीसगढ़ में नक्सली हमलों का अंदेशा बढ़ गया है। चूंकि इस अंदेशे का एक बड़ा कारण राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव हैैं इसलिए यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया के लिए नक्सली एक बड़ा खतरा बन गए हैैं। विडंबना यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक गुट लोकतंत्र को नष्ट करने पर आमादा इन नक्सलियों का हितैषी बना हुआ है। वह उन्हें न केवल वैचारिक खुराक देता है, बल्कि उनके हितों को पूरा करने के लिए दबे-छिपे ढंग से काम भी करता है।

यह भी एक विडंबना ही थी कि पिछले दिनों जब कुछ ऐसे ही संदिग्ध तत्व गिरफ्तार किए गए तो न केवल आसमान सिर पर उठा लिया गया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की गई। इस सबसे यही प्रकट हुआ कि अतिवादी तत्वों के साथ-साथ उनके शहरी समर्थकों से भी सख्ती से निपटने की जरूरत है। यह पहली बार नहीं जब चुनावी माहौल में नक्सली अपने मजबूत ठौर-ठिकानों में हिंसक गतिविधियां तेज करते दिख रहे हैैं। वे यह कारनामा पहले भी करते रहे हैैं। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में चुनाव के दौरान अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है।

यह शुभ संकेत नहीं कि छत्तीसगढ़ में चौकसी बढ़ाए जाने के बावजूद नक्सली सुरक्षा बलों को निशाना बनाने की कोशिश कर रहे हैैं। बीते दिनों छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने एक के बाद एक दो हमले किए। पहले हमले में सीआरपीएफ के चार जवान शहीद हो गए और दूसरे में दो पुलिस कर्मियों समेत दूरदर्शन के एक कैमरामैन की जान चली गई। बाद में नक्सलियों ने कैमरामैन की मौत पर घड़ियाली आंसूूू बहाते हुए यह सफाई दी कि उनका इरादा पत्रकार को मारने का नहीं था, लेकिन सच तो यही है कि वे यह नहीं चाह रहे थे कि देश को ऐसी कोई खबर जाए कि छत्तीसगढ़ के गरीब ग्रामीण मतदान के लिए उत्साहित हैैं।

जैसे आज छत्तीसगढ़ में नक्सली चुनाव प्रक्रिया को छिन्न-भिन्न करना चाह रहे हैैं वैसे ही देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी चुनावों के दौरान किस्म-किस्म के अतिवादी तत्व सिर उठा लेते हैैं। कई बार तो स्थानीय निकायों के चुनावों के मौके पर भी ऐसा होता है। राजनीतिक दलों को न केवल इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर चुनावी माहौल में अतिवादी तत्व सिर क्यों उठा लेते हैैं, बल्कि खुद भी चुनावी आक्रामकता को मर्यादित करना सीखना चाहिए। यह ठीक नहीं कि चुनावों के दौरान एक-दूसरे पर अभद्र आरोप, निराधार लांछन और शालीनता को तज कर की जाने वाली तू तू-मैैं मैैं अब आम हो गई है।

चूंकि इससे बचने के लिए कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही इसलिए अब राजनीतिक दल छल-कपट का सहारा लेने और अवसरवाद का जुगुप्सा भरा प्रदर्शन करने में भी संकोच नहीं करते। यह और कुछ नहीं, एक किस्म का सियासी अतिवाद ही है। यह भी लोकतंत्र के लिए खतरा है। आखिर राजनीतिक दलों को मर्यादित तरीके से चुनाव लड़ने में क्या परेशानी है? वे एक ओर तो यह कहते हैैं कि जनता बहुत समझदार है और दूसरी ओर ऐसा आचरण करते हैैं मानो उसमें कोई समझ ही न हो।