तेलुगु देसम पार्टी के प्रमुख एवं आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की ओर से दिल्ली में राहुल गांधी से मेल-मुलाकात के साथ ही एक और ऐसा दल कांग्रेस के संग खड़ा हो गया जो मूलत: उसके विरोध की उपज था। आम तौर पर जब ऐसा होता है तब इस जुमले को सूक्ति की तरह इस्तेमाल किया जाता है कि राजनीति में न तो स्थायी मित्रता होती है और न ही शत्रुता, लेकिन जब एक-दूसरे के कट्टर विरोधी दल एक साथ आते हैैं तो हैरानी भी होती है और अवसरवादी राजनीति की भी याद आती है।

शायद चंद्रबाबू नायडू को यह भान अच्छी तरह था कि उन्होंने अतीत में किस तरह कांग्रेस और उसके शीर्ष नेताओं के खिलाफ तीखे वक्तव्य दिए हैैं और इसीलिए उन्होंने यह कहा कि अब बीती बातें भुलाकर एक साथ काम करने का वक्त है। नि:संदेह दोनों दलों के नेता बहुत आसानी से यह भुला देंगे कि उन्होंने एक-दूसरे के विरोध में क्या कुछ कहा और किया, लेकिन क्या कार्यकर्ता और साथ ही आंध्र प्रदेश की जनता भी यह भूल जाएगी कि तेलुगु देसम पार्टी अपनी स्थापना से लेकर अभी कल तक किस तरह कांग्रेस को कोसती रहती थी?

चंद्रबाबू नायडू से मुलाकात के बाद राहुल गांधी ने लोकतंत्र को बचाने के लिए भाजपा को रोकने की जरूरत जताई। करीब चार साल तक मोदी सरकार के साथ रहे चंद्रबाबू नायडू ने भी इसे अपना एजेंडा बताया। इसी के साथ उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि वह भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने की कोशिश करेंगे और इस क्रम में अन्य दलों के नेताओं से भी मिलेंगे, लेकिन यह काम तो ममता बनर्जी, शरद यादव, शरद पवार आदि पहले से ही करने में लगे हुए हैैं। अगर भाजपा विरोधी दल एकजुट होना चाह रहे हैैं तो फिर हर किसी को इसके लिए अलग-अलग कोशिश क्यों करनी पड़ रही है?

क्या यह अजीब नहीं कि राहुल गांधी के अतिरिक्त एक के बाद एक क्षेत्रीय नेता भाजपा को रोकने के लिए महागठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वह आकार लेता नहीं दिख रहा है। अभी हाल में बसपा प्रमुख मायावती ने जिस तरह पहले छत्तीसगढ़ और फिर मध्यप्रदेश में अकेले दम पर चुनाव लड़ने की घोषणा की उससे महागठबंधन का भविष्य अधर में नजर में आने लगा।

कहना कठिन है कि चंद्रबाबू नायडू की कोशिश कितना रंग लाएगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि दिल्ली यात्रा के दौरान वह जिन शरद पवार से मिले वह कई बार यह कह चुके हैैं कि चुनाव के पहले किसी गठबंधन के आकार लेने की संभावना नहीं है। उनकी एक दलील यह भी है कि प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी चुनाव बाद तय होगा। इसमें हर्ज नहीं कि विपक्षी दल कांग्रेस को साथ लेकर या फिर उसके बगैर भाजपा को रोकने के लिए एक साथ आएं, लेकिन आखिर यह भी तो बताएं कि वे सत्ता में आकर क्या करेंगे? आखिर वह वैकल्पिक एजेंडा अथवा कार्यक्रम कहां हैैं जिसके आधार पर आम जनता यह जान सके कि विपक्षी दल भाजपा को रोककर सत्ता हासिल करने के बाद क्या करने वाले हैैं? क्या यह भी चुनाव बाद बताया जाएगा?