घोटाले कर विदेश भागने वालों के खिलाफ केंद्रीय कैबिनेट ने एक ओर जहां एक ऐसे विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी जो भगोड़ों की संपत्ति जब्त करने में सहायक बनेगा वहीं फाइनेंशियल रिपोर्टिंग अथॉरिटी के गठन का भी रास्ता साफ किया। यह निकाय चार्टर्ड अकाउंटेंट के साथ-साथ ऑडिट कंपनियों के कामकाज पर भी निगरानी रखेगा। ऑडिट कंपनियों के निराशाजनक रवैये के बाद ऐसे किसी निकाय की आवश्यकता और बढ़ गई थी। ऑडिट कंपनियां चाहे जो सफाई दें, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वित्तीय धांधली रोकने के मामले में उनकी भूमिका बहुत ही दयनीय रही है। बेहतर हो कि वे शिकवा-शिकायत करने के बजाय अपनी कमजोरियों पर गौर करें। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की ओर से उठाए गए ताजा कदम घोटालेबाजों के मंसूबों पर पानी फेरने का काम करेंगे।

अच्छा होता कि ये कदम पहले ही उठा लिए जाते, क्योंकि घोटालेबाजों के विदेश भागने का सिलसिला एक अर्से से कायम है। बेहतर हो कि केंद्र सरकार के नीति-नियंता यह देखें कि घोटालेबाजों और साथ ही उनकी मदद करने वालों के खिलाफ और क्या कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि अभी तो ऐसा लगता है कि नियामक एवं निगरानी तंत्र डाल-डाल है तो भ्रष्ट तत्व पात-पात। नि:संदेह यह भी देखने की जरूरत है कि आर्थिक अपराधी अदालती प्रक्रिया का बेजा इस्तेमाल करने में समर्थ न रहें। अदालतों के लिए यह आवश्यक है कि वे आर्थिक अपराधियों पर शिकंजा कसने में सख्ती बरतें। पता नहीं इस पर पहल किस स्तर पर होगी, लेकिन यह अजीब है कि जब न्यायपालिका यह चाह रही है कि लोकपाल का गठन जल्द हो तब कांग्रेस ने उसमें अडंगा लगाने का काम किया।

लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति की बैठक में जाने के बजाय जिस तरह प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपना असंतोष प्रकट करने में दिलचस्पी दिखाई उससे यही लगता है कि उनका उद्देश्य इस मसले पर सियासत करने का अधिक था। उन्होंने बैठक में शामिल हुए बिना ही यह निष्कर्ष निकाल लिया कि सरकार विपक्ष की आवाज खारिज करने की साझा कोशिश कर रही है। क्या वह यह कहना चाह रहे हैैं कि इस कोशिश में लोकसभा अध्यक्ष के साथ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैैं? पता नहीं वह क्या इंगित करना चाहते हैैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि जब लोकपाल के गठन में पहले ही देरी हो रही है तो उन्होंने और देर करने वाला बहाना पेश करना ठीक समझा।

क्या यह अच्छा नहीं होता कि वह उक्त बैठक में शामिल होते और अपनी सहमति या असहमति बाद में व्यक्त करते? आखिर वह बैठक में गए बिना इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि लोकपाल चयन प्रक्रिया से विपक्ष को अलग करने की कोशिश हो रही है? ऐसा लगता है कि कांग्रेस लोकसभा में अपने नेता को नेता विपक्ष का दर्जा न मिलने से परेशान है, लेकिन क्या यह परिपाटी उसने ही नहीं बनाई कि संख्याबल के अभाव में सबसे बड़े विपक्षी दल को नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिलेगा? अगर कांग्रेस लोकपाल गठन को लेकर गंभीर है तो उसे असहयोग करने वाले रवैये को छोड़ना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]