मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का नतीजा पहले से पता था। बावजूद इसके इस उत्कंठा ने उसके प्रति दिलचस्पी बढ़ा दी थी कि इस दौरान संसद में कौन कितनी जोरदारी से अपनी बात कहता है? इस प्रस्ताव पर चर्चा के समय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर निगाहें कुछ ज्यादा ही थीं। शायद वह भी यह जान रहे थे और इसीलिए उन्होंने सरकार के खिलाफ आक्रामक भाषण देने के बाद प्रधानमंत्री के पास जाकर सहसा उन्हें गले लगा लिया।

अच्छा होता कि वह इससे भी परिचित होते कि कैमरे की निगाह से कुछ छिपता नहीं। प्रधानमंत्री से गले मिलने के तत्काल बाद उन्होंने जैसी मुख मुद्रा अपनाई उससे अविश्वास प्रस्ताव एक तरह के तमाशे में तब्दील हो गया। अविश्वास प्रस्ताव के दौरान हुई चर्चा ने यही अधिक इंगित किया कि संसद में बहस का स्तर सचमुच गिर गया है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस गिरावट की एक वजह संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण भी है। हैरत नहीं कि राहुल इसी मकसद से प्रधानमंत्री के गले लगे हों कि उनका यह कथित मैत्री भाव चर्चा का विषय बनेगा। जब कुछ ढंग का कहने की जरूरत थी तब वह कुछ बेढंगा कर बैठे। उनके भाषण में कोई नई बात खोजना मुश्किल रहा। उन्होंने मोदी सरकार पर वही पुराने घिसे-पिटे आरोप नए सिरे से मढ़े जिनका इस्तेमाल वह पहले भी कर चुके हैं। हमेशा की तरह उनके ज्यादातर आरोप आधारहीन ही थे।

यह सामान्य बात नहीं कि इधर राहुल ने राफेल विमान सौदे में गड़बड़ी का पुराना आरोप उछाला और उधर फ्रांस सरकार ने उसका न केवल खंडन किया, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इस सौदे में गोपनीयता बरते जाने का समझौता संप्रग सरकार के समय ही किया गया था। इस स्पष्टीकरण के बाद राहुल के लिए यह बताना आवश्यक हो जाता है कि आखिर उन्होंने किस आधार पर यह बोल दिया कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने उन्हें बताया था कि राफेल सौदे में गोपनीयता संबंधी कोई समझौता नहीं हुआ? आलोचना और तथ्यपरक आरोपों का तो जवाब दिया जा सकता है, लेकिन निराधार आरोपों का जवाब देना एक तरह से तू तू-मैं मैं करना ही है। यह निराशाजनक रहा कि अविश्वास प्रस्ताव के बहाने विपक्ष मोदी सरकार की कायदे से आलोचना भी नहीं कर सका।

अविश्वास प्रस्ताव में जिस तरह आंध्र प्रदेश को विशेष सहायता न देने को तूल दिया गया उससे यह साबित हुआ कि विपक्ष सरकार को घेरने के लिए ठोस मुद्दों का चयन करने में भी नाकाम रहा। क्या तेलुगु देसम पार्टी इससे इन्कार कर सकती है कि केंद्र सरकार आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने के बजाय अन्य तरीके से सहायता करने को तैयार थी? अब तो इससे आंध्र की जनता भी परिचित है कि तेलुगु देसम पार्टी की दिलचस्पी केंद्र से सहायता हासिल करने के बजाय इसमें थी कि इस मसले को राजनीतिक रूप से भुनाया कैसे जाए?

विपक्ष ने नोटबंदी सरीखे दो साल पुराने मसले को उठाकर जिस तरह सरकार को घेरने की कोशिश की उससे यही जाहिर हुआ कि उसने पर्याप्त तैयारी नहीं कर रखी थी। उसने एक तरह से अपना और साथ ही देश का वक्त बर्बाद किया।