संसद के मानसून सत्र में लोकसभा में 21 और राज्यसभा में 14 विधेयक पारित होने का एक मतलब यह भी है कि इस सत्र में अपेक्षा से कहीं अधिक कामकाज हुआ। इसके पहले के सत्रों और खासकर बीते बजट सत्र का दूसरा चरण जिस तरह बर्बाद किया गया उससे यह आशंका थी कि कहीं मानसून सत्र भी हंगामें की भेंट न चढ़ जाए। चूंकि कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने के साथ आगामी आम चुनाव भी निकट हैं इसलिए आशंका और प्रबल थी। यह अच्छी बात है कि यह आशंका एक बड़ी हद तक निर्मूल साबित हुई, लेकिन बात तब बनेगी जब संसद का यह कामकाजी सत्र अपवाद नहीं एक अनुकरणीय उदाहरण बने। नि:संदेह ऐसा तब होगा जब सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष भी संसद में सार्थक चर्चा करने के लिए प्रतिबद्ध होगा। यह सही है कि संसद चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अगर विपक्ष हंगामे पर आमादा हो तो फिर कुछ नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि बजट सत्र में हंगामा करते रहने के कारण विपक्ष की जो नकारात्मक छवि बनी उससे वह कुछ सचेत हुआ। इसे भूलना आसान नहीं कि तब वित्त विधेयक बिना बहस पारित हुआ था और विपक्ष के सांसद केवल नारेबाजी करने ही सदनों में आते थे। तब यदि विपक्ष हंगामा करने के मूड में था तो सत्तापक्ष भी उससे संवाद कर संसद चलाने को प्रतिबद्ध नहीं दिख रहा था।

शायद सरकार ने बजट सत्र की बर्बादी से सबक सीखा और मानसून सत्र में विपक्ष की अविश्वास प्रस्ताव की मांग तत्काल स्वीकार कर उसे अपनी भड़ास निकालने का अवसर उपलब्ध कराया। विपक्ष इसकी उम्मीद नहीं कर रहा था कि सरकार सत्र के प्रारंभ में ही अविश्वास प्रस्ताव की उसकी मांग मानकर उस पर तुरंत चर्चा कराने के लिए तैयार हो जाएगी। वैसे अगर यह काम पिछले सत्र में ही हो गया होता तो शायद मानसून सत्र की तस्वीर इतनी बेहतर नहीं होती। जो भी हो, इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि मानसून सत्र में अपेक्षा से अधिक काम हुआ, क्योंकि संसद का प्रत्येक काम गुणवत्ता भरा भी होना चाहिए। इसका कोई औचित्य नहीं कि संसद में सार्थक बहस के नाम पर आरोप-प्रत्यारोप उछाले जाएं। विपक्ष को सरकार से सवाल करने और उसकी आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन ऐसा करते हुए उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शासन चलाने का अधिकार तो सत्तापक्ष को ही होता है। समझना कठिन है कि आखिर विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने तीन तलाक से संबंधित विधेयक पर अड़ंगा लगाकर क्या हासिल किया? आखिर जब इस महत्वपूर्ण विधेयक में जरूरी संशोधन कर विपक्ष की आपत्तियों का एक बड़ी हद तक निवारण कर दिया गया था तब फिर उसकी राह रोकने का क्या मतलब? इस सवाल का जवाब कांग्रेस अध्यक्ष दें तो बेहतर, क्योंकि इन दिनों वह महिलाओं के हित के मसले जोर-शोर से उठा रहे हैं। क्या वह इससे अवगत नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से तत्काल तीन तलाक को खारिज कर देने के बाद भी उसका दुरुपयोग किया जा रहा है? क्या यह स्थिति तीन तलाक रोधी कानून की जरूरत को रेखांकित नहीं कर रही है?