यह अच्छी बात है कि पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को खत्म करने की पहल के तहत केंद्र सरकार कुछ और ऐसे ही कानूनों को समाप्त करने की तैयारी में है। मोदी सरकार ने कुल 1824 ऐसे कानून चिन्हित किए थे जो पुराने और अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से अब तक 1657 को खत्म किया जा चुका है। चूंकि अब अनुपयोगी कानूनों की संख्या 167 ही रह गई है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि अगले एक वर्ष में उनसे भी मुक्ति मिल जाएगी और इस तरह सरकार अपने एक अन्य एजेंडे को पूरा कर लेगी। नि:संदेह इसके बाद सरकार इसे अपनी एक उपलब्धि बता सकती है, लेकिन बेहतर होगा कि वह आम जनता को इससे भी परिचित कराए कि अभी तक पुराने कानूनों को खत्म करने से शासन-प्रशासन को गति देने अथवा लोगों की समस्याओं का समाधान करने में कितनी मदद मिली है? जिन कानूनों की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है उन्हें तो खत्म होना ही चाहिए, लेकिन इसी के साथ उन कानूनों को दुरुस्त करने का भी काम किया जाना चाहिए जो समस्याओं का समाधान करने में सहायक बनने के बजाय उन्हें उलझाने का काम करते हैैं।

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपने देश में अभी भी ऐसे तमाम कानून हैैं जो शासन-प्रशासन के साथ-साथ आम जनता के समक्ष भी जटिलताएं खड़ी करते हैैं। कई बार छोटे-छोटे फैसलों को लागू करने में इसलिए अनावश्यक देरी होती है, क्योंकि वे कानूनों की जटिलता में उलझ जाते हैैं। बेहतर हो कि सरकार किसी समिति को उन कानूनों की पहचान का भी काम सौंपे जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर ठीक किए जाने की जरूरत है। यह काम राज्यों के कानूनों के संदर्भ में भी होना चाहिए, क्योंकि जिस तरह तमाम केंद्रीय कानून ऐसे हैैं जिनका कोई उपयोग नहीं रह गया है उसी तरह राज्यों में भी ऐसे कई कानून हैैं। इस मामले में राज्य सरकार पर्याप्त सचेत नहीं, इसका पता इससे चलता है कि उन्हें 229 पुराने कानूनों को समाप्त करने के लिए कहा गया था, लेकिन अभी तक 65 ही खत्म किए जा चुके हैैं।

पुराने कानूनों को खत्म करने और जटिलता बढ़ाने वाले कानूनों को सुधारने के साथ सरकार का ध्यान इस पर भी जाना चाहिए कि प्रासंगिक कानूनों पर सही तरह अमल कैसे हो? हमारे देश में हर तरह के कानून हैैं, लेकिन अक्सर यह देखने में आता है कि कई कानूनों पर अमल के मामले में खुद सरकारी मशीनरी भी सजग-सचेत नहीं दिखती। जब किसी एक कानून की उपेक्षा होती है तो फिर अन्य कानूनों की अनदेखी की भी प्रवृत्ति पनपती है। यह भी देखने में आ रहा है कि कुछ क्षेत्रों में तो सुधार के तहत पुराने कानूनों को हटाने अथवा उन्हें प्रासंगिक बनाने का काम हो रहा है, लेकिन कुछ क्षेत्र अछूते से पड़े हैैं। इस क्रम में श्रम कानून शीर्ष पर हैैं। आखिर क्या कारण है कि पुराने और अप्रासंगिक हो चुके श्रम कानूनों की सुधि नहीं ली जा रही है? ध्यान रहे कि किसी भी देश की तेज तरक्की तभी होती है जब वहां के कानून कारगर होने के साथ दिखते भी हैैं।

[ मुख्य संपादकीय ]