झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के एक गांव मे चोरी के आरोप में पकड़े गए युवक की भीड़ के हाथों पिटाई के बाद पुलिस हिरासत में मौत के मामले ने तूल पकड़ लिया है तो यह स्वाभाविक ही है। भीड़ की हिंसा के ऐसे मामले तूल पकड़ने ही चाहिए, क्योंकि वे विधि के शासन को नीचा दिखाने के साथ ही अराजक माहौल को भी बयान करते हैैं। झारखंड की इस घटना को केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने जघन्य अपराध बताते हुए यह सही कहा कि लोगों को पीटकर नहीं, बल्कि गले लगाकर ही श्रीराम का जयघोष कराया जा सकता है। भीड़ ने चोरी कर रहे युवक को पकड़ कर ठीक किया, लेकिन यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं किया कि उसने उसे पीट-पीटकर अधमरा करने के बाद पुलिस को सौंपा और इसके पहले उसे जयश्री राम बोलने के लिए मजबूर किया। यह अराजकता के नग्न प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं।

यह चिंता की बात है कि भीड़ की हिंसा के वैसे मामले बढ़ते जा रहे हैैं जिनमें कानून एवं व्यवस्था को धता बताई जाती है। अब तो पुलिस, डॉक्टर और अन्य सरकारी-गैर सरकारी लोग भी भीड़ की हिंसा का शिकार बनने लगे हैैं। यह एक खतरनाक संकेत है। इस तरह की घटनाएं यही बताती हैैं कि कानून के शासन को अपेक्षित महत्व नहीं मिल रहा है। कानून हाथ में लेकर अराजक व्यवहार करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती, क्योंकि ऐसा व्यवहार शांति व्यवस्था को चुनौती देने के साथ ही देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी भी कराता है।

केंद्र और राज्य सरकारों को इसके प्रति चेतना ही होगा कि भीड़ की हिंसा के मामले रुकें। इसके लिए पुलिस सुधारों पर ध्यान देना होगा। सारे देश का ध्यान खींचने वाली झारखंड की घटना में एक खराब बात यह भी हुई कि पुलिस ने चोरी के आरोप में बुरी तरह पिटे तबरेज अंसारी को समय पर अस्पताल ले जाने की सुध नहीं ली। आखिर पुलिस-प्रशासन की ओर से जो सक्रियता अब दिखाई जा रही है वह समय रहते क्यों नहीं दिखाई गई? भीड़ की अराजकता पर अंकुश लगाने के साथ ही उस प्रवृत्ति पर भी रोक लगानी होगी जिसके तहत हिंसक घटनाओं को रोकने के बजाय उनके वीडियो बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर अपलोड करना बेहतर समझा जाता है। ऐसे वीडियो माहौल खराब करने का ही काम करते हैं।

भीड़ की हिंसा के प्रत्येक मामले की बिना किसी किंतु-परंतु निंदा होनी भी जरूरी है। पीड़ित अथवा हमलावर की जाति या फिर उसका मजहब देखकर उद्वेलित होना या न होना ठीक नहीं। तबरेज अंसारी के परिवार को न्याय मिले, इसकी चिंता करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्याय की दरकार मथुरा के उस लस्सी विक्रेता के परिवार को भी है जो चंद दिनों पहले भीड़ की हिंसा का शिकार बना है। हिंसा-हत्या के मामलों में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का चश्मा चढ़ाकर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आदत उतनी ही खराब है जितनी यह कि अगर घटना भाजपा शासित राज्य में हो तो सीधे प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा किया जाए और गैर-भाजपा शासित राज्य में हो तो फिर स्थानीय प्रशासन से भी सवाल पूछने की जहमत न उठाई जाए।

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