इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि जिस दिल्ली से केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार भी संचालित होती हो और जहां नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एवं सुप्रीम कोर्ट के साथ ही अन्य तमाम नीति-नियंता भी हों वही प्रदूषण के सबसे खतरनाक स्तर से जूझने के लिए विवश है। दिल्ली और उसके आस-पास का इलाका जैसे प्रदूषण से त्रस्त है उसके लिए फसलों के अवशेष जलाने से उपजा धुआं, सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल और वाहनों का उत्सर्जन ही जिम्मेदार नहीं। इसके साथ-साथ वे सब लोग जिम्मेदार हैं जो इससे अवगत थे कि पिछले वर्षों की भांति इस वर्ष भी सर्दियां आते ही दिल्ली प्रदूषण का शिकार हो सकती है। ऐसे लोगों को समय रहते यानी सितंबर के प्रारंभ में ही सक्रिय हो जाना चाहिए था, क्योंकि यही वह समय होता है जब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान पराली यानी फसलों के अवशेष जलाने की तैयारी में लग जाते हैं। वे सक्रियता दिखाने के बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और यहां तक कि तब भी जब इन इलाकों में पराली जलाया जाना शुरू हो गया। यह भी स्पष्ट है कि जिन संस्थाओं-संस्थानों पर यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी कि संबंधित सरकारी एजेंसियां प्रदूषण की रोकथाम में समय से जुटें वे भी समय पर नहीं चेतीं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने राजधानी में जहरीली होती हवा को लेकर यह सही कहा कि न तो दिल्ली सरकार कोई कदम उठा रही है और न ही केंद्र सरकार, लेकिन आखिर खुद वह वक्त पर क्यों नहीं सक्रिय हुआ? क्या वह इससे अवगत नहीं था कि अतीत में प्रदूषण की रोकथाम को लेकर सरकारों का रवैया कैसा रहा है?
यह सहज स्वाभाविक है कि देश की राजधानी में प्रदूषण का स्तर खतरनाक हो जाने पर हर तरफ सक्रियता दिख रही है, लेकिन देरी के दुष्परिणामों से बचना मुश्किल ही है। दिल्ली में प्रदूषण की जैसी स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था यदि पड़ोसी राज्यों की सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया होता। जिस तरह पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान की सरकारों ने प्रदूषण की रोकथाम के लिए कुछ नहीं किया वैसी ही स्थिति अन्य राज्य सरकारों की भी है। यही कारण है कि देश के तमाम अन्य शहरों में भी प्रदूषण की मात्रा बढ़ती चली जा रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि मध्य और उत्तर भारत के शहरों में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है। अब तो इनमें से कई ऐसे शहरों के नाम भी दर्ज हो रहे हैं जिनके बारे में यह धारणा है कि वे प्रदूषण से बचे हुए हैं। यदि प्रदूषण की रोकथाम के मामले में ऐसी ही ढिलाई बरती गई तो आने वाले समय में प्रदूषण छोटे शहरों को भी उसी तरह अपनी चपेट में ले सकता है जिस प्रकार बड़े शहर प्रभावित दिख रहे हैं। प्रदूषण की रोकथाम के मामले में राज्य सरकारें और उनकी संबंधित एजेंसियां तभी सक्रियता दिखाती हैं जब अदालतों अथवा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की ओर से सवाल जवाब किए जाते हैं। यह भी स्पष्ट है कि प्रदूषण बढ़ाने वाले सभी कारणों के निदान पर मुश्किल से ही ध्यान दिया जाता है। स्थिति में तब तक कोई सुधार होने की उम्मीद नहीं है जब तक प्रदूषण की रोकथाम के मामले में जिम्मेदार एजेंसियों को जवाबदेह नहीं बनाया जाता। समय आ गया है कि प्रदूषण की रोकथाम के मामले में कठोर कदम उठाए जाएं।

[ मुख्य संपादकीय ]