बांदा के मेडिकल कालेज अस्पताल और छिबरामऊ (कन्नौज) के सौ शैया वाले अस्पताल में दो बच्चों की मृत्यु हो गई। दोनों के परिवार वाले अस्पताल के उपचार से संतुष्ट नहीं हैं। दोनों ही जगह शव ले जाने को स्ट्रेचर नहीं मिला और परिवारीजन अपने हाथों में शव ले गए। परिवारीजन की नाराजगी और दूसरे तीमारदारों के विरोध के बाद दोनों जगह किए गए उपचार की जांच करने का आश्वासन दिया गया है। दोनों ही जगह स्ट्रेचर उपलब्ध होने की बात कही जा रही है। बांदा में जब नाराज परिवारीजन डीएम के पास शव लेकर पहुंचे तो प्रशासन की ओर से खुद ही एंबुलेंस मंगाने के लिए फोन किया गया। मगर पहली बार में नहीं आई, जब दूसरी बार में फटकार लगाई गई तब वह उपलब्ध हो पाई। फिलहाल प्रदेश में मेडिकल सुविधाओं के होने और जरूरतमंद को उपलब्ध होने की स्थिति बताने के लिए बांदा की ही घटना काफी है। जब जिला प्रशासन के फोन पर एक-दो घंटे तक कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो आम लोगों की हालत का अंदाज स्वयं ही लग जाता है।

छिबरामऊ वाले केस में डाक्टर बता रहे हैं कि बच्ची को निमोनिया था, रात में ही रेफर कर दिया गया था। बच्ची के पिता ने अकेले होने के कारण रात में ले जाने में असमर्थता जताई। सुबह बच्ची दुनिया में नहीं रही। ये माना कि हर अस्पताल में हर मरीज की बीमारी का इलाज नहीं हो सकता। यह भी हकीकत है, हर तीमारदार आनन-फानन में अपने मरीज को दूसरे बड़े अस्पताल में ले नहीं जा सकता। इन्हीं क्षणों में तीमारदार और डाक्टर-कर्मचारियों के बीच तकरार होने लगती है। यही वक्त है जब संवेदनशील होना जरूरी होता है। तीमारदार तनाव में अधिक रहते हैं इसलिए अस्पताल से जुड़े लोगों से ही समझदारी की उम्मीद की जाती है। कई बार काम के परिणाम से ज्यादा जरूरी होता है कि किस तरह से कार्य किया गया। अस्पताल के डाक्टर कई बार काम के बोझ से तनाव में रहते हैं, फिर भी उन्हें किसी परिजन की भावना का पूरा सम्मान कर ही उनसे वार्तालाप करना चाहिए। अस्पताल में उपलब्ध सुविधाओं का शतप्रतिशत उपयोग हो यह भी सुनिश्चित करना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश ]